जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैंने और मेरे साथी सेवक महामारी के दिनो में अपना आहार घटा लिया था। एक लम्बे समय से मेरा अपना यह नियम था कि जब आसपास महामाही की हवा हो तब पेट जितना हलका रहे उतना अच्छा। इसलिए मैंने शाम का खाना बन्द कर दिया था और दोपहर को भोजन करनेवालो को सब प्रकार के भय से दूर रखने के लिए मैं ऐसे समय पहुँचकर खा आता था जब दूसरे कोई पहुँचे न होते थे। भोजनालय के मालिक से मेरी गहरी जान पहचान हो गयी थी। मैंने उससे कह रखा था चूंकि मैं महामारी के बीमारो की सेवा में लगा हूँ इसलिए दूसरो के सम्पर्क में कम से कम आना चाहता हूँ।
यों मुझे भोजनालय में न देखने के कारण दूसरे या तीसरे ही दिन सबेरे सबेरे जब मैं बाहर निकलने की तैयारी में लगा था, वेस्ट ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलते ही वेस्ट बोले, 'आपको भोजनालय में न देखकर मैं घबरा उठा था कि कहीँ आपको कुछ नहीं हो गया। इसलिए यह सोचकर कि इस समय आप मिल ही जायेंगे, मैं यहाँ आया हूँ। मेरे कर सकने योग्य कोई मदद हो तो मुझ से कहिये। मैं बीमारो की सेवा शुश्रूषा के लिए भी तैयार हूँ। आप जानते है कि मुझ पर अपना पेट भरने के सिवा कोई जवाबदारी नहीं हैं।'
मैंने वेस्ट का आभार माना। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने विचार के लिए एक मिनिट भी लगाया हो। तुरन्त कहा, 'आपको नर्स के रुप में तो मैं कभी न लूँगा। अगर नये बीमार न निकले तो हमारा काम एक दो दिन में ही पूरा गो जायेगा। लेकिन एक काम अवश्य हैं।'
'कौन-सा?'
'क्या डरबन पहुँचकर आप 'इंडियन ओपिनियन' प्रेस का प्रबन्ध अपने हाथ में लेंगे? मदनजीत तो अभी यहाँ के काम में व्यस्त है। परन्तु वहाँ किसी का जाना जरूरी हैं। आप चले जाये तो उस तरफ की मेरी चिन्ता बिल्कुल कम हो जाय।'
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