जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
जब मैंने पिछला प्रकरण लिखना शुरू किया, तो उसे शीर्षक 'अंग्रेजो से परिचय' दिया था। पर प्रकरण लिखते समय मैंने देखा कि इन परिचयों का वर्णन करने से पहले जो पुण्य स्मरण मैंने लिखा उसे लिखना आवश्यक था। अतएव वह प्रकरण मैंने लिखा और लिख चुकने के बाद पहले का शीर्षक बदलना पड़ा।
अब इस प्रकरण को लिखते समय एक नया धर्म-संकट उत्पन्न हो गया हैं। अंग्रेजो का परिटय देते हुए क्या कहना और क्या न कहना, यह महत्त्व का प्रश्न बन गया हैं। जो प्रस्तुत है वह न कहा जाय तो सत्य को लांछन लगेगा। पर जहाँ इस कथा का लिखना ही कदाचित् प्रस्तुत न हो, वहाँ प्रस्तुत - अप्रस्तुत के बीच झगड़े का एकाएक फैसला करना कठिन हो जाता हैं।
इतिहास के रूप में आत्मकथा-मात्र की अपूर्णता और उसकी कठिनाइयों के बारे में पहले मैंने जो पढा था, उसका अर्थ आज मैं अधिक समझता हूँ। मैं यह जानता हूँ कि सत्य के प्रयोगों की इस आत्मकथा में जितना मुझे याद हैं उतना सब मैं हरगिज नहीं दे सका हूँ। कौन जानता है कि सत्य का दर्शन कराने के लिए मुझे कितना देना चाहिये अथवा न्याय-मन्दिर में एकांगी और अधूरे प्रमाणों की क्या कीमत आँकी जायेगी? लिखे हुए प्रकरणों पर कोई फुरसतवाला आदमी मुझसे जिरह करने बैठे, तो वह इन प्रकरणों पर कितना अधिक प्रकाश डालेगा? और यदि वह आलोचक की दृष्टि से इनकी छानबीन करे, तो कैसी कैसी 'पोलें' प्रकट करके दुनिया को हँसावेगा और स्वयं फूलकर कुप्पा बनेगा?
इस तरह सोचने पर क्षणभर के लिए मन में यही आता है कि क्या इन प्रकरणों का लिखना बन्द कर देना ही अधिक उचित न होगा? किन्तु जब तक आरम्भ किया हुआ काम स्पष्ट रुप से अनीतिमय प्रतीत न हो तब तक उसे बन्द न किया जाय, इस न्याय से मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि अन्तर्यामी सोकता नहीं उस समय तक ये प्रकरण मुझे लिखते रहना चाहिये।
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