जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैंने हाईकोर्ट के पुस्तकालय का उपयोग करना शुरू किया और वहाँ कुछ जान-पहजान भी शुरू की। मुझे लगा कि थोडे समय में मैं भी हाईकोर्ट में काम करने लगूँगा।
इस प्रकार एक ओर से मेरे धंधे में कुछ निश्चिन्तता आने लगी।
दूसरी ओर गोखले की आँख तो मुझ पर लगी ही रहती थी। हफ्ते में दो-तीन बार चेम्बर में आकर वे मेरी कुशल पूछ जाते और कभी कभी अपने खास मित्रों को भी साथ में लाया करते थे। अपनी कार्य-पद्धति से भी वे मुझे परिचित करते रहते थे।
पर यह कहा जा सकता हैं कि मेरे भविष्य के बारे में ईश्वर ने मेरा सोचा कुछ भी न होने दिया।
मैंने सुस्थिर होने का निश्चय किया और थोडी स्थिरता अनुभव की कि अचानक दक्षिण अफ्रीका का तार मिला, 'चेम्बरलेन यहाँ आ रहै हैं, आपको आना चाहिये।' मुझे अपने वचन का स्मरण तो था ही। मैंने तार दिया, 'मेरा खर्च भेजिये, मैं आने को तैयार हूँ।' उन्होंने तुरन्त रुपये भेज दिये और मैं दफ्तर समेट कर रवाना हो गया।
मैंने सोचा था कि मुझे एक वर्ष तो सहज ही लग जायगा। इसलिए बंगला रहने दिया और बाल-बच्चो को वहीं रखना उचित समझा।
उस समय मैं मानता था कि जो नौजवान देश में कोई कमाई न करते हो और साहसी हो, उनके लिए परदेश चला जाना अच्छा है। इसलिए मैं अपने साथ चार-पाँच नौजवानो को लेता गया। उनमें मगनलाल गाँधी भी थे।
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