जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैं लुई कूने के उपचार जानता था। उसके प्रयोग भी मैंने किये थे। मैं यह भी जानता था कि बीमारी में उपवास का बड़ा स्थान हैं। मैंने मणिलाल को कूने की रीति से कटिस्नान कराना शुरू किया। मैं उसे तीन मिनट से ज्यादा टब में नहीं रखता था। तीन दिन तक उसे केवल पानी मिलाये हुए संतरे के रस पर रखा।
बुखार उतरता न था। रात भर अंट संट बकता था। तापमान 104 डिग्री तक जाता था। मैं घबराया। यदि बालक को खो बैठा तो दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े भाई क्या कहेंगे? दूसरे डॉक्टर को क्यों न बुलाया जाय? बैद्य को क्यों न बुलाया जाय? अपनी ज्ञानहींन बुद्धि लड़ाने का माता-पिता को क्या अधिकार हैं?
एक ओर ऐसे विचार आते थे, तो दूसरी ओर इस तरह के विचार भी आते थे, 'हे जीव ! तू जो अपने लिए करता, वहीं लड़के के लिए भी करे, तो परमेश्वर को संतोष होगा। तुझे पानी के उपचार पर श्रद्धा है, दवा पर नहीं। डॉक्टर रोगी को प्राणदान नहीं देता। वह भी तो प्रयोग ही करता है। जीवन की डोर तो एक ईश्वर के हाथ में हैं। ईश्वर का नाम लेकर, उस पर श्रद्धा रख तक, तू अपना मार्ग मत छोड़।'
मन में इस तरह का मन्थन चल रहा था। रात पड़ी। मैं मणिलाल को बगल में लेकर सोया था। मैंने उसे भिगोकर निचोयी हुई चादर में लपेटने का निश्चय किया। उसे ठंड़े पानी में भिगोया। निचोया। उसमें उसे सिर से पैर तक लपेट दिया। ऊपर से दो कम्बल औढा दिये। सर पर गीला तौलिया रखा। बुखार से शरीर तवे की तरह तप रहा था और बिल्कुल सूखा था। पसीना आता न था।
मैं बहुत थक गया था। मणिलाल को उसकी माँ के जिम्मे करके मैं आधे घंटे के लिए चौपाटी पर चला गया। थोड़ी हवा खाकर ताजा होने और शान्ति प्राप्ति करने के लिए रात के करीब दस बजे होगे। लोगों का आना जाना कम हो गया था। मुझे बहुत कम होश था। मैं विचार सागर में गोते लगा रहा था। हे ईश्वर ! इस धर्म-संकट में तू मेरी लाज रखना। 'राम राम ' की रटन तो मुँह में थी ही। थोड़े चक्कर लगाकर धड़कती छाती से वापस आया। घर में पैर रखते ही मणिलाल ने मुझे पुकारा, 'बाबू, आप आ गये?'
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