जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
इसमे साहब में तो शुद्ध भाव से अपनी समझ के अनुसार ठीक ही किया। पर उन्हे कंगाल हिन्दुस्तान की मुश्किलों का अंदाज कैसा हो सकता था? वे बेचारे हिन्दुस्तान की आवश्यकताओं, भली-बुरी आदतों और रीति-रिवाजो को क्योकर समझ सकते थे? जिसे गिन्नियो में गिनती करने की आदत हो, उसे पाईयों में हिसाब लगाने को कहिये,तो वह झट से हिसाब कैसे कर सकेगा? अत्यन्त शुभ हेतु रखते हुए भी जिस तरह हाथी चींटी के लिए विचार करने में असमर्थ होता है, उसी तरह हाथी की आवश्यकता वाला अंग्रेज चींटी की आवश्यकता वाले भारतीय के लिए विचार करने या नियम बनाने में असमर्थ ही होगा।
अब मूल विषय पर आता हूँ।
ऊपर बताये अनुसार सफलता मिलने के बाद भी मैं कुछ समय के लिए राजकोट में ही रहने की सोच रहा था। इतने में एक दिन केवलराम मेरे पास आये और बोले, 'गाँधी, तुमको यहाँ नहीं रहने दिया जायेगा। तुम्हें तो बम्बई ही जाना होगा।'
'लेकिन वहाँ मुझे पूछेगा कौन? क्या मेरा खर्च आप चलायेंगे?'
'हाँ, हाँ, मैं तुम्हारा खर्च चलाऊँगा। तुम्हे बड़े बारिस्टर की तरह कभी कभी यहाँ ले आया करुँगा और लिखा-पढ़ी वगैरा का काम तुमको वहाँ भेजता रहूँगा। बारिस्टरो को छोटा-बड़ा बनाना तो हम वकीलों का काम है न? तुमने अपनी योग्यता का प्रमाण तो जामनगर और वेरावल में दे ही दिया हैं, इसलिए मैं निश्चिंत हूँ। तुम सार्वजनिक काम के लिए सिरजे गये हो, तुम्हें हम काठियावाड़ में दफन न होने देंगे। कहों, कब रवाना होते हो?'
'नेटाल से मेरे कुछ पैसे आने बाकी हैं, उनके आने पर चला जाऊँगा।'
पैसे एक-दो हफ्तो में आ गये और मैं बम्बई पहुँचा। पेईन, गिलबर्ड और सयानी के दफ्तर में 'चेम्बर' (कमरे) किराये पर लिये और मुझे लगा कि अब मैं बम्बई में स्थिर हो गया।
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