जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैंने भगवद् गीता के भक्तिमार्ग की चर्चा की। पर मेरा बोलना निरर्थक था। मैंने इन भले आदमी का उनकी भलमनसाहत के लिए उपकार माना। मुझे संतोष न हुआ, फिर भी इस भेंट से मुझे लाभ ही हुआ।
मैं यह कह सकता हूँ कि इसी महीने मैंने कलकत्ते की एक-एक गली छान डाली। अधिकांश काम मैं पैदल चलकर करता था। इन्हीं दिनों मैं न्यायमूर्ति मित्र से मिला। सर गुरुदास बैनर्जी से मिला। दक्षिण अफ्रीका के काम के लिए उनकी सहायता की आवश्यकता थी। उन्हीं दिनो मैंने राजा सर प्यारीमोहन मुकर्जी के भी दर्शन किये।
कालीचरण बैनर्जी ने मुझ से काली-मन्दिर की चर्चा की थी। वह मन्दिर देखने की मेरी तीव्र इच्छा थी। पुस्तक में मैंने उसका वर्णन पढ़ा था। इससे एक दिन मैं वहाँ जा पहुँचा। न्यायमूर्ति का मकान उसी मुहल्ले में था। अतएव जिस दिन उनसे मिला, उसी दिन काली-मन्दिर भी गया। रास्ते में बलिदान के बकरों की लम्बी कतार चली जा रही थी। मन्दिर की गली में पहुचते ही मैंने भिखारियो की भीड़े लगी देखी। वहाँ साधु-संन्यासी तो थे ही। उन दिनो भी मेरा नियम हृष्ट-पुष्ट भिखारियो को कुछ न देने का था। भिखारियों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया था।
एक बाबाजी चबूतरे पर बैठे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा, 'क्यों बेटा, कहाँ जाते हो? '
मैंने समुचित उत्तर दिया। उन्होंने मुझे और मेरे साथियो को बैठने के लिए कहा। हम बैठ गये।
मैंने पूछा, 'इन बकरों के बलिदान को आप धर्म मानते हैं?'
'जीव की हत्या को धर्म कौन मानता हैं?'
'तो आप यहाँ बैठकर लोगों को समझाते क्यों नहीं?'
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