जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
श्री घोषाल मुझे पहचानते न थे। नाम-घाम जानने का काम तो उन्होंने बाद में किया। पत्रो का ढेर साफ करने का काम मुझे बहुत आसान लगा। अपने सामने रखे हुए ढेर को मैंने तुरन्त निबटा दिया। घोषालबाबू खुश हुए। उनका स्वभाव बातूनी था। मैं देखता था बातो में वे अपना बहुत समय बिता देते थे। मेरा इतिहास जानने के बाद तो मुझे क्लर्क का काम सौपने के लिए वे कुछ लज्जित हुए। पर मैंने उन्हें निश्चिन्त कर दिया, 'कहाँ आप और कहाँ मैं? आप कांग्रेस के पुराने सेवक हैं, मेरे गुरूजन हैं। मैं एक अनुभवहीन नवयुवक हूँ। यह काम सौपकर आपने मुझ पर उपकार ही किया हैं, क्योंकि मुझे कांग्रेस में काम करना हैं। उसके कामकाज की समझने का आपने मुझे अलभ्य अवसर दिया हैं।'
घोषालबाबू बोले, 'असल में यही सच्ची वृत्ति हैं। पर आज के नवयुवक इसे नहीं मानते। वैसे मैं तो कांग्रेस को उसके जन्म से जानता हूँ। उसे जन्म देने में मि. हयूम के साथ मेरा भी हिस्सा था।'
हमारे बीच अच्छी मित्रता हो गयी। दोपहर के भोजन में उन्होंने मुझे अपने साथ ही रखा। घोषालबाबू के बटन भी 'बैरा' लगाता था। यह देखकर 'बैरे' का काम मैंने ही ले लिया। मुझे वह पसन्द था। बड़ो के प्रति मेरे मन में बहुत आदर था। जब वे मेरी वृत्ति समझ गये. तो अपने निजी सेवा के सारे काम मुझसे लेने लगे। बटन लगाते समय मुझे मुसकराकर कहते, 'देखिये न, कांग्रेस के सेवक को बटन लगाने का भी समय नहीं मिलता, क्योंकि उस समय भी उसे काम रहता हैं !'
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