जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
सर दीनशा वाच्छा मेरा उत्साह बढाने के लिए बोले, 'गाँधी, प्रस्ताव लिख कर मुझे बताना भला !'
मैंने उनका उपकार माना। दूसरे स्टेशन पर ज्यो ही गाड़ी खड़ी हुई, मैं भागा और अपने डिब्बे में घुस गया।
हम कलकत्ते पहुँचे। अध्यक्ष आदि नेताओं को नागरिक धूमधाम से ले गये। मैंने किसी स्वयंसेवक से पूछा, 'मुझे कहाँ जाना चाहिये?'
वह मुझे रिपन कॉलेज ले गया। वहाँ बहुत से प्रतिनिधि ठहराये गये थे। मेरे सौभाग्य से जिस विभाग में मैं था, उसी में लोकमान्य तिलक भी ठहरे हुए थे। मुझे याद पड़ता है कि एक दिन बाद पहुँचे थे। जहाँ लोकमान्य हो वहाँ छोटा सा दरबार तो गल ही जाता था। मैं चित्रकार होता, तो जिस खटिया पर वे बैठते थे, उसका चित्र खींच लेता। उस जगह का और उनकी बैठक का आज भी मुझे इतना स्पष्ट स्मरण हैं। उनसे मिलने आनेवाले अनगिनत लोगों में से एक ही नाम मुझे अब याद हैं -- 'अमृतबाजार पत्रिका' के मोतीबाबू। उन दोनों का खिलखिलाकर हँसना और राज्यकर्ताओं के अन्याय के विषय में उनकी बाते भूलने योग्य नहीं है।
लेकिन वहाँ की व्यवस्था को थोड़ा देखें।
स्वयंसेवक एक-दूसरे से टकराते रहते थे। जो काम जिसे सौपा जाता, वह स्वयं उसे नहीं करता था। वह तुरन्त दूसरे को पुकारता था। दूसरा तीसरे को। बेचारा प्रतिनिधि तो न तीन में होता, न तेरह में।
मैंने अनेक स्वयंसेवको से दोस्ती की। उनसे दक्षिण अफ्रीका की कुछ बाते की। इससमे वे जरा शरमिन्दा हुए। मैंने उन्हें सेवा का मर्म समझाने का प्रयत्न किया। वे कुछ समझे। पर सेवा की अभिरुचि कुकुरमुत्ते की तरह बात की बात में तो उत्पन्न नहीं होती। उनके लिए इच्छा चाहिये और बाद में अभ्यास। इन भोले और भले स्वयंसेवको में इच्छा तो बहुत थी, पर तालीम और अभ्यास वे कहाँ से पाते? कांग्रेस साल में तीन दिन के लिए इक्टठा होकर फिर सो जाती थी। साल में तीन दिन की तालीम से कितना सीखा जा सकता था?
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