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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


'विद्रोह' में तो मुझे डेढ महीने से अधिक का समय नहीं देना पड़ा, पर छह हफ्तो का यह समय मेरे जीवन का अत्यन्त मूल्यवान समय था। इस समय मैंने व्रत के महत्त्व को अधिक से अधिक समझा। मैंने देखा कि व्रत बन्धन नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का द्बार हैं। आज तक मुझे अपने प्रयत्नों में चाहिये उतनी सफलता न मिलने का कारण यह था कि मों ढृढनिश्चयी नहीं था। मुझे अपनी शक्ति पर अविश्वास था, ईश्वर की कृपा पर अविश्वास था, और इस कारण मेरा मन अनेक तरंगो और अनेक विचारों के चक्कर में पड़ा रहता था। मैंने देखा कि व्रत-बद्ध न होने से मनुष्य मोह में पड़ता हैं। व्रत से बंधना व्यभिचार से छुटकारा पाकर एकपत्नी व्रत का पालन करने के समान हैं। 'मैं प्रयत्न करने में विश्वास रखता हूँ, व्रत से बन्धन नहीं चाहता ' - यह वचन निर्बलता की निशानी हैं, और इसमे सूक्ष्म रुप से भोग की वासना छिपी होती हैं। जो वस्तु त्याज्य हैं, उसका सर्वथा त्याग करने में हानि कैसे हो सकती हैं? जो साँप मुझे डंसने वाला है, उसका त्याग मैं निश्चय-पूर्वक करता हूँ, त्याग का केवल प्रयत्न नहीं करता। मैं जानता हूँ कि केवल प्रयत्न के भरोसे रहने में मृत्यु निहित हैं। प्रयत्न में साँप की विकरालता के स्पष्ट ज्ञान का अभाव हैं। इसी तरह हम केवल वस्तु के त्याग का हम केवल प्रयत्न करते है उस वस्तु के त्याग के औचित्य के बारे में हमे स्पष्ट दर्शन नहीं हुआ हैं, यह सिद्ध होता है। 'आगे चलकर मेरे विचार बदल जाये तो?' ऐसी शंका करके प्रायः हम व्रत लेने से डरते हैं। इस विचार में स्पष्ट दर्शन का अभाव ही हैं। इसीलिए निष्कुलानन्द ने कहा हैं :

'त्याग न टके रे वैराग बिना।'

जहाँ अमुक वस्तु के प्रति संपूर्ण वैराग्य उत्पन्न हो गया हैं, वहाँ उसके विषय में व्रत लेना अनिवार्य हो जाता हैं।

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