जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
इस प्रकार डरबन में द्वन्द्व युद्ध छिड़ गया। एक ओर मुट्ठीभर गरीब हिन्दुस्तानी और उनके इने-गिने अंग्रेज मित्र थे ; दूसरी ओर धनबल, बाहुबल, विद्यालय और संख्याबल में भरेपूरे अंग्रेज थे। इन बलवान प्रतिपक्षियों को राज्य का बल भी प्राप्त हो गया था, क्योंकि नेटाल की सरकार ने खुल्लम-खुल्ला उनकी मदद की थी। मि. गेरी एस्कम्बने जो मंत्रिमंडल में थे और उसके कर्ताधर्ता थे। इन गोरों की सभा में प्रकट रुप से हिस्सा लिया।
मतलब यह कि हमारी सूतक केवल स्वास्थ्य रक्षा के नियमों के ही कारण न था। उसका हेतु किसी भी तरह एजेंड को या यात्रियों को दबा कर हमें वापस भेजना था। एजेंड को तो धमकी मिल ही रही थी। अब हमारे नाम भी आने लगीं : 'अगर तुम वापस न गये तो तुम्हें समुन्द्र में डुबो दिया जायगा। लौट जाओ तो लौटने का भाड़ा भी शायद मिल जाये। ' मैं यात्रियों के बीच खूब घदादा अब्दुल्ला दोनोंं स्टीमरों को वापस ले जाये तो गोरे नुकसान की भरपाई करने को तैयार थे। दादा अब्दुल्ला किसी की धमकी से डरने वाले न थे। इस समय वहाँ सेठ अब्दुल करीम हाजी आदम दुकान पर थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े, वे स्टीमरो को बन्दर पर लायेंगे और यात्रियों को उतारेंगे। मेरे नाम उनके विस्तृत पत्र बारबर आते रहते थे। सौभाग्य से इस समय स्व. मनसुखलाल हीरालाल नाजर मुझे से मिलने के लिए डरबन आ पहुँचे। वे होशियार औप बहादुर आदमी थे। उन्होंने हिन्दुस्तानी कौम को नेक सलाह दी। मि. लाटन वकील थे। उन्होंने गोरों की करतूतों की निन्दा की और इस अवसर पर कौम को जो सलाह दी, वह सिर्फ वकील होने के नाते पैसे लेकर नहीं, बल्कि एक सच्चे मित्र के नाते दी। घुमा-फिरा। उन्हें धीरज बँधाया। नादरी के यात्रियों को भी धीरज से काम लेने के संदेश भेजे। यात्री शान्त रहे ओर उन्होंने हिम्मत का परिचय दिया।
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