जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
इसी स्टीमर में दूसरे कुछ रिश्तेदार और जान-पहजान वाले भी थे। मैं उनसे और डेक के दूसरे यात्रियों से भी खूब मिलता-जुलता रहता था। क्योंकि स्टीमर मेरे मुवक्किल और मित्र का था, इसलिए घर का सा लगता था। और मैं हर जगह आजादी से घूम-फिर सकता था।
स्टीमर दूसरे बन्दरगाह पर ठहरे बिना सीधा नटाल पहुँचनेवाला था। इसके लिए केवल अठारह दिन की यात्रा था। हमारे पहुँचने में तीन-चार दिन बाकी थे कि इतने में समुद्र में भारी तूफान उठा मानो वह हमारे पहुँचते ही उठने वाले तूफान की हमें चेतावनी दे रहा हो ! इस दक्षिणी प्रदेश में दिसम्बर का महीना गरमी और वर्षा का महीना होता हैं, इसलिए दक्षिणी समुद्र में इन दिनों छोटे-मोटे तूफान तो उठते ही रहते हैं। लेकिन यह तूफान जोर का था और इतनी देर तक रहा कि यात्री घबरा उठे।
यह दृश्य भव्य था। दुःख में सब एक हो गये। सारे भेद-भाव मिट गये। ईश्वर को हृदय पूर्वक याद करने लगे। हिन्दू-मुसलमान सब साथ मिलकर भगवान का स्मरण करने लगे। कुछ लोगों ने मनौतियाँ मानी। कप्तान भी यात्रियों से मिला-जुला और सबको आश्वासन देते हुए बोला, "यद्यपि यह तूफान बहुत जोर का माना जा सकता हैं, तो भी इससे कहीं ज्यादा जोर के तूफानों का मैने स्वयं अनुभव किया हैं। स्टीमर मजबूत हो तो वह अचानक डूबता नहीं। " इस प्रकार उसने यात्रियों को बहुत-कुछ समझाया, पर इससे उन्हें तसल्ली न हूई। स्टीमर में से आवाजें ऐसी होती थी, मानो अभी कहीं से टूट जायेगा, अभी कहीं छेद हो जाय़ेगा। जब वह हचकोले खाता तो ऐसा लगता मानो अभी उलट जायेगा। डेक पर तो कोई रह ही कैसे सकता था? सबके मुँह से एक ही बात सुनायी पड़ती थी : 'भगवान जैसा रखे वैसा रहना होगा।'
जहाँ तक मुझे याद है, इस चिन्ता में चौबीस घंटे बीते होंगे। आखिर बादल बिखरे। सूर्यनारायण ने दर्शन दिये। कप्तान ने कहा, "तूफान चला गया हैं।"
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