जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
इस सम्बन्ध ने मुझे जाग्रत रखा। धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन के लिए जो फुरसत थी, अब असम्भव थी। पर जो थोड़ा समय बचता, उसका उपयोग मैं वैसे अध्ययन में करता था। मेरा पत्र-व्यवहार जारी था। रायचन्दभाई मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे। किसी मित्र ने मुझे नर्मदाशंकर की 'धर्म विचार' पुस्तक भेजी। उसकी प्रस्तावना मेरे लिए सहायक सिद्ध हुई। मैंने नर्मदाशंकर के विलासी जीवन की बाते सुनी थी। प्रस्तावना में उनके जीवन में हुए परिवर्तनो का वर्णन था। उसने मुझे आकर्षित किया और इस कारण उस पुस्तक के प्रति मेरे मन में आदर उत्पन्न हुआ। मैं उसे ध्यानपूर्वक पढ गया।
मैंक्समूलर की 'हिन्दुस्तान क्या सिखाता हैं?' पुस्तक मैंने बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ी। थियॉसॉफिकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित उपनिषदो का भाषान्तर पढ़ा। इससे हिन्दू धर्म के प्रति आदर बढ़ा। उसकी खूबियाँ मैं समझने लगा। पर दूसरे धर्मो के प्रति मेरे मन में अनादर उत्पन्न नहीं हुआ। वाशिंग्टन अरविंग कृत मुहम्मद का चरित्र और कार्लाइल की मुहम्मद-स्तुति पढ़ी। मुहम्मद पैगम्बर के प्रति मेरा सम्मान बढ़ा। 'जरथुस्त के वचन' नामक पुस्तक भी मैंने पढ़ी।
इस प्रकार मैंने भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों का थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त किया। मेरा आत्म-निरीक्षण बढ़ा। जो पढ़ा औऱ पसंद किया, उसे आचरण में लाने की आदत पक्की हुई। अतएव हिन्दू धर्म से सूचित प्राणायाम-सम्बन्धी कुछ क्रियायें, जितनी पुस्तक की मदद से समझ सका उतनी मैंने शुरू की। पर वे मुझे संधी नहीं। मैं उनमे आगे न बढ़ सका। सोचा था कि वापस हिन्दुस्तान जाने पर उनका अभ्यास किसी शिक्षक की देखरेख में करुँगा। पर वह विचार कभी पूरा नहीं हो सका।
टॉल्सटॉय की पुस्तकों का अध्ययन मैंने बढ़ा लिया। उनकी 'गॉस्पेल्स इन ब्रीफ' ( नये करार का सार), 'व्हॉट टु डू' (तब क्या करें? ) आदि पुस्तको ने मेरे मन में गहरी छाप डाली। विश्व-प्रेम मनुष्य को कहाँ तक ले जा सकता हैं, इसे मैं अधिकाधिक समझने लगा।
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