जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मेरी नीयत मालिक को सजा कराने की नहीं थी। मुझे तो बालासुन्दरम् को उसके पंजे से छुटाना था। मैंने गिकमिटियो से सम्बन्ध रखने वाले कानून की छान-बीन कर ली। यदि साधारण नौकर नौकरी छोडता, तो मालिक उसके खिलाफ दीवानी दावा दायर कर सकता था, पर उसे फौजदारी में नहीं ले जा सकता था। गिरमिट में और साधारण नौकरी में बहुत फर्क था। पर खास फर्क यह था कि अगर गिरमिटिया मालिक को छोडे, तो वह फौजदारी गुनाह माना जाता था और उसके लिए उसे कैद भुगतनी होती थी। इसीलिए सर विलियम विल्सम हंटर में इस स्थिति को लगभग गुलामी की सी स्थिति माना था। गुलाम की तरह गिरमिटिया मालिक की मिल्कियत माना जाता था। बालासुन्दरम् को छुटाने के केवल दो उपाय थे, या तो गिरमिटियो के लिए नियुक्त अधिकारी, जो कानून की दृष्टि से उनका रक्षक कहा जाता था, गिरमिट रद्द करे या दूसरे के नाम लिखवा दे, अथवा मालिक स्वयं उसे छोडने को तैयार हो जाये। मैं मालिक से मिला। उससे मैंने कहा, 'मैं आपको सजा नहीं कराना चाहता। इस आदमी को सख्त मार पडी हैं, सो तो आप जानते ही है, आप इसका गिरमिट दूसरे के नाम लिखाने को राजी हो जाये तो मुझे संतोष होगा।' मालिक यही चाहता था। फिर मैं रक्षक से मिला। उसने भी सहमत होना स्वीकार किया, पर शर्त यह रखी कि मैं बालासुन्दरम् के लिए नया मालिक खोज दूँ।
मुझे नये अंग्रेज मालिक की खोज करनी थी। हिन्दुस्तानियों को गिरमिटिया मजदूर रखने की इजाजत नहीं थी। मैं अभी कुछ ही अंग्रेजो को पहचानता था। उन्होंने मुझ पर मेंहरबानी करके बालासुन्दरम् को रखना मंजूर कर लिया। मैंने उनकी कृपा को साभार स्वीकार किया। मजिस्ट्रेट में मालिक को अपराधी ठहराकर यह लिख दिया कि उसने बालासुन्दरम् का गिरमिट दूसरे के नाम लिखाना स्वीकार किया हैं।
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