जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
उन दिनों लॉर्ड रिपन उपनिवेश-मंत्री थे। उन्हें एक बहुत बड़ी अर्जी भेजने का निश्चय किया गया। इन अर्जी पर यथासम्भव अधिक से अधिक लोगों की सहियाँ लेनी थी। यह काम एक दिन में तो हो ही नहीँ सकता था, स्वयंसेवक नियुक्त हुए और सबने काम निबटाने का जिम्मा लिया।
अर्जी लिखने में मैंने बहुत मेंहनत की। जो साहित्य मुझे मिला, सो सब मैं पढ़ गया। हिन्दुस्तान में हम एक प्रकार के मताधिकार का उपभोग करते हैं, सिद्धांत की इस दलील को और हिन्दुस्तानियों कि आबादी कम हैं, इस व्यावहारिक दलील को मैंने केन्द्र बिन्दु बनाया।
अर्जी पर दस हजार सहियाँ हुई। एक पखवाड़े में अर्जी भेजने लायक सहियाँ प्राप्त हो गयी। इतने समय नेटाल में दस सहियाँ प्राप्त की गयी, इसे पाठक छोटी-मोटी बात न समझे। सहियाँ समूचे नेटाल से प्राप्त करनी थी। लोग ऐसे काम से अपरिचित थे। निश्चय यह था कि सही करने वाला किस बात पर सही कर रहा हैं, इसे जब तक समझ न ले तब तक सही न ली जाये। इसलिए खास तौर पर स्वयंसेवक को भेजकर ही सहियाँ प्राप्त की जा सकती थी। गाँव दूर-दूर थे, इसलिए अधिकतर काम करने वाले लगन से काम करे तभी ऐसा काम शीध्रता-पूर्वक हो सकता था। ऐसा ही हुआ। इसमे सबने उत्साह-पूर्वक काम किया। काम करने वालो में से सेठ दाऊद मुहम्मद, पारसी रुस्तमजी, आदमजी मियाँखान और आदम जीवा की मूर्तियाँ इस समय भी मेरी आँखो के सामने खड़ी हैं। ये खूब सहियाँ लाये थे। दाऊद सेठ अपनी गाड़ी लेकर दिनभर घूमा करते थे। किसी ने जेब खर्च तक नहीं माँगा।
दादा अब्दुल्ला का घर धर्मशाला अथवा सार्वजनिक दफ्तर सा बन गया। पढे-लिखे भाई तो मेरे पास ही बने रहते थे। उनका और अन्य काम करनेवालो का भोजन दादा अब्दुल्ला के घर ही होता था। इस प्रकार सब बहुत खर्च में उतर गये।
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