जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
अन्त मैंने दादा अब्दुल्ला के केस में यह देख लिया था कि उनका पक्ष मजबूत हैं। कानून को उनकी मदद करनी ही चाहिये।
पर मैंने देखा कि मुकदमा लड़ने में दोनो पक्ष, जो आपस में रिश्तेदार हैं और एक ही नगर के निवासी हैं, बरबाद हो जायेंगे। कोई कर नहीं सकता था कि मुकदमे का अन्त कब होगा। अदालत में चलता रहे, तो उसे जितना चाहो उतना लम्बा किया जा सकता था। मुकदमे को लम्बा करने में दो में से किसी पक्ष का भी लाभ न होता। इसलिए संभव हो तो दोनो पक्ष मुकदमे का शीध्र अन्त चाहते थे।
मैंने तैयब सेठ से बिनती की। झगडे को आपस में ही निबटा लेने की सलाह दी। उन्हें अपने वकील से मिलने को कहा। यदि दोनो पक्ष अपने विश्वास के किसी व्यक्ति को पंच चुन ले, तो मामला झटपट निबट जाये। वकीलो का खर्च इतना अधिक बढ़ता जा रहा था कि उसमें उनके जैसे बड़े व्यापारी भी बरबाद हो जाते। दोनो इतनी चिन्ता के साथ मुकदमा लड़ रहे थे कि एक भी निश्चिन्त होकर दूसरा कोई काम नहीं कर सकता था। इस बीच आपस में बैर भी बढ़ता ही जा रहा था। मुझे वकील के धंधे से धृण हो गयी। वकील के नाते तो दोनों वकीलो को अपने-अपने मुवक्किल को जीतने के लिए कानून की गलियाँ ही खोज कर देनी था। इस मुकदमे में पहले-पहल मैं यह जाना कि जीतने वालो को भी पूरा खर्च कभी मिल ही नहीं सकता। दूसरे पक्ष से कितना खर्च बसूल किया जा सकता हैं, इसकी एक मर्यादा होती हैं, जब कि मुवक्किल का खर्च उससे कही अधिक होता हैं। मुझे यह सब असह्य मालूम हुआ। मैंने तो अनुभव किया कि मेरा धर्म दोनो की मित्रता साधना और दोनो रिश्तेदारों में मेंल करा देना है। मैंने समझौते के लिए जी-तोड़ मेंहनत की। तैयब सेठ मान गये। आखिर पंच नियुक्त हुए। उनके सामने मुकदमा चला। मुकदमे में दादा अब्दुल्ला जीते।
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