जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैं रंगभेद को नहीं मानता। मेरे साथ काम करने वाले कुछ साथी भी हैं। हम प्रतिदिन एक बजे कुछ मिनट के लिए मिलते है और आत्मा तथा प्रकाश (ज्ञान के उदय) के लिए प्रार्थना करते हैं। उसमें आप आयेगे, तो मुझे खुशी होगी। वहाँ मैं अपने साथियों से भी आपकी पहचान करा दूँगा। वे सब आपसे मिलकर प्रसन्न होंगे। और मुझे विश्वास है कि उनका समागम आपको भी अच्छा लगेगा। मैं आपको कुछ धार्मिक पुस्तकें भी पढने के लिए दूँगा, पर सच्ची पुस्तक तो बाइबल ही हैं। मेरी सलाह है कि आप उसे अवश्य पढिये।
मैंने मि. बेकर को धन्यवाद दिया औऱ अपने बसभर रोज एक बजे उनके मंडस में प्रार्थना के लिए पहुँचना स्वीकार किया।
'तो कल एक बजे यहीं आइयेगा। हम साथ ही प्रार्थना मन्दिर चलेंगे।'
हम जुदा हुए। अधिक विचार करने की अभी मुझे फुरसत नहीं थी। मैं मि. जाँन्स्टन के पास गया। बिल चुकाया। नये घर में पहुँचा। घर मालकिन भली स्त्री थी। उसने मेरे लिए अन्नाहार तैयार किया था। इस कुटुम्ब में घुलमिल जाने में मुझे देर न लगी। भोजन से मिबटकर मैं उन मित्र से मिलने गया, जिनके नाम दादा अब्दुल्ला ने मुझे पत्र दिया था। उनसे जान पहचान हुई। हिन्दुस्तानियों की दुर्दशा की विशेष बाते उनसे जानने को मिली। उन्होंने मुझ से अपने घर रहने का आग्रह किया। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और मेरे लिए जो व्यवस्था हो चुकी थी। उसकी बात कही। उन्होंने मुझ से आग्रहपूर्वक कहा कि जिस चीज की आवश्यकता हो मैं उनसे माँग लूँ।
शाम हुई। ब्यालू की और मैं तो अपने कमरे में जाकर विचारो के चक्कर में पड़ गया। मैंने अपने लिए तुरन्त कोई काम नहीं देखा। अब्दुल्ला सेठ को इसकी सूचना भेज दी। मि. बेकर की मित्रता का क्या अर्थ हो सकता हैं? उनसे धर्म-बन्धुओ से मुझे क्या मिल सकेगा? ईसाई धर्म का अध्ययन मुझे किस हद तक करना चाहिये? हिन्दु धर्म का साहित्य कहाँ से प्राप्त किया जाये? उसे समझे बिना मैं ईसाई धर्म के स्वरुप को कैसे समझ सकता हूँ? मैं एक ही निर्णय कर सका, मुझे जो भी पढने को मिले उसे मैं निष्पक्ष भाव से पढूँ और मि. बेकर के समुदाय को, भगवान जिस समय जो सुझा दे, सो जवाब दूँ। जब तक मैं अपने धर्म को पूरी तरह समझ न लूँ, तब तक मुझे दूसरे धर्मो को अपनाने का विचार नहीं करना चाहिये। इस तरह सोचता हुआ मैं निद्रावश हो गया।
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