जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
इसमे मेरे मन में थोड़ा पेच था। मेरा यह ख्याल था कि स्टेशन मास्टर लिखित उत्तर तो 'ना' का ही देगा। फिर, कुली बारिस्टर कैसे रहते होगे, इसकी भी वह कल्पना न कर सकेगा। इसलिए अगर मैं पूरे साहबी ठाठ में उसके सामने जाकर खड़ा रहूँगा और उससे बात करूँगा तो वह समझ जायेगा और शायद मुझे टिकट दे देगा। अतएव मैं फ्राँक कोट, नेकटाई वगैरा डालकर स्टेशन पहुँचा। स्टेशन मास्टर के सामने मैंने गिन्नी निकालकर रखी और पहले दर्जे का टिकट माँगा।
उसने कहा, 'आपने ही मुझे चिट्ठी लिखी हैं?'
मैंने कहा, 'जी हाँ। यदि आप मुझे टिकट देंगे तो मैं आपका एहसान मानूँगा। मुझे आज प्रिटोरिया पहुँचना ही चाहिये। '
स्टेशन मास्टर हँसा। उसे दया आयी। वह बोला, 'मैं ट्रान्सवालर नहीं हूँ। मैं हाँलैंडर हूँ। आपकी भावना को मैं समझ सकता हूँ। आपके प्रति मेरी सहानुभूति है। मैं आपको टिकट देना चाहता हूँ। पर एक शर्त पर, अगर रास्ते में गार्ड आपको उतार दे और तीसरे दर्जे में बैठाये तो आप मुझे फाँसिये नहीं, यानी आप रेलवे कम्पनी पर दावा न कीजिये। मैं चाहता हूँ कि आपकी यात्रा निर्विध्न पूरी हो। आप सज्जन हैं, यह तो मैं देख ही सकता हूँ।'
यों कहकर उसमें टिकट काट दिया। मैंने उसका उपकार माना और उसे निश्चित किया। अब्दुलगनी सेठ मुझे बिदा करने आये थे। यह कौतुक देखकर वे प्रसन्न हुए, उन्हें आश्चर्य हुआ। पर मुझे चेताया, 'आप भली भाँति प्रिटोरिया पहुँच जाये तो समझूँगा कि बेड़ा पार हुआ। मुझे डर हैं कि गार्ड आपको पहले दर्जे में आराम से बैठने नहीं देगा, और गार्ड ने बैठने दिया तो यात्री नहीं बैठने देंगे।'
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