जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
ऐसी दशा में पगड़ी पहनने का प्रश्न एक महत्त्व का प्रश्न बन गया। पगड़ी उतारने का मतलब था अपमान सहन करना। मैंने तो सोचा कि मैं हिन्दुस्तानी पगड़ी को बिदा कर दूँ और अंग्रेजी टोपी पहन लूँ, ताकि उसे उतारने में अपमान न जान पड़े और मैं झगड़े से बच जाऊँ।
पर अब्दुल्ला सेठ को यह सुझाव अच्छा न लगा। उन्होंने कहा, 'अगर आप इस वक्त यह फेरफार करेगे तो उससे अनर्थ होगा। जो दुसरे लोग देश की ही पगड़ी पहनना चाहेंगे, उनकी स्थिति नाजुक बन जायेगी। इसके अलावा, आपको को देशी पगड़ी ही शोभा देगी। आप अंग्रेजी टोपी पहनेंगे तो आपकी गिनती वेटरों में होगी।'
इन वाक्यों में दुनियावी समझदारी थी, देशभिमान था और थोडी संकुचितता भी थी। दुनियावी समझदारी तो स्पष्ट ही हैं। देशाभिमान के बिना पगड़ी का आग्रह नहीं हो सकता, और संकुचितता के बिना वेटर की टीका संभव नहीँ। गिरमिटिया हिन्दुस्तानी हिन्दू, मुसलमान और ईसाई इन तीन भागों में बटे हूए थे। जो गिरमिटिया हिन्दुस्तानी ईसाई बन गये, उनकी संतान ईसाई कहलायी। सन् 1893 में भी ये बड़ी संख्या में थे। वे सब अंग्रेजी पोशाक ही पहनते थे। उनका एक खासा हिस्सा होटलों में नौकरी करके अपनी आजीविका चलाता था। अब्दुल्ला सेठ के वाक्यों में अंग्रेजी टोपी की जो टीका थी, वह इन्ही लोगों को लक्ष्य में रखकर ली गयी थी। इसके मूल में मान्यता यह थी कि होटल में वेटर का काम करना बुरा हैं। आज भी यह भेद बहुतों के मन में बसा हुआ हैं।
कुल मिलाकर अब्दुल्ला सेठ की दलील मुझे अच्छी लगी। मैंने पगड़ी के किस्से को लेकर अपने और पगड़ी के बचाव में समाचार पत्रों के नाम एक पत्र लिखा। अखबारों में मेरी पगड़ी की खूब चर्चा हुई। 'अनवेलकम विजिटर' (अवांछित अतिथि) शीर्षक से अखवारो में मेरी चर्चा हुई और तीन-चार दिन के अंदर ही मैं अनायास दक्षिण अफ्रीका में प्रसिद्धि पा गया। किसी ने मेरा पक्ष लिया औऱ किसी ने मेरी धृष्टता की खूब निन्दा की।
मेरी पगड़ी तो लगभग अन्त तक बनी रही। कब गई सो हम अन्तिम भाग में देखेंगे।
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