जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
हिन्दू-संसार में विवाह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं. वर-कन्या के माता-पिता विवाह के पीछे बरबाद होते हैं, धन लुटाते हैं और समय लुटाते हैं। महीनों पहले से तैयारियाँ होती हैं। कपड़े बनते हैं, गहने बनते हैं, जातिभोज के खर्च के हिसाब बनते हैं, पकवानों के प्रकारों की होड़ बदी जाती हैं। औरतें, गला हो चाहे न हो तो भी गाने गा-गाकर अपनी आवाज बैठा लेती हैं, बीमार भी पड़ती हैं। पड़ोसियों की शान्ति में खलल पहुँचाती हैं। बेचारे पड़ोसी भी अपने यहाँ प्रसंग आने पर यही सब करते हैं, इसलिए शोरगुल, जूठन, दूसरी गन्दगियाँ, सब कुछ उदासीन भाव से सह लेते हैं।
ऐसा झमेला तीन बार करने के बदले एक बार ही कर लिया जाए, तो कितना अच्छा हो? खर्च कम होने पर भी ब्याह ठाठ से हो सकता है, क्योंकि तीन ब्याह एक साथ करने पर पैसा खुले हाथों खर्चा जा सकता है। पिताजी और काकाजी बूढ़े थे। हम उनके आखिरी लड़के ठहरे। इसलिए उनके मन में हमारे विवाह रचाने का आनन्द लूटने की वृत्ति भी रही होगी। इन और ऐसे दूसरे विचारों से ये तीनों विवाह एक साथ करने का निश्चय किया गया, और सामग्री जुटाने का काम तो, जैसा कि मैं कह चुका हूँ महीनों पहले से शुरू हो चुका था।
हम भाईयों को तो सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि ब्याह होने वाले हैं। उस समय मन में अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने, बाजे बजने, वर यात्रा के समय घोड़े पर चढ़ने, बढिया भोजन मिलने, एक नई बालिका के साथ विनोद करने आदि की अभिलाषा के सिवा दूसरी कोई खास बात रही हो, इसका मुझे कोई स्मरण नहीं है। विषय-भोग की वृत्ति तो बाद में आयी। वह कैसे आयी, इसका वर्णन कर सकता हूँ, पर पाठक ऐसी जिज्ञासा न रखें। मैं अपनी शरम पर परदा डालना चाहता हूँ। जो कुछ बतलाने लायक है, वह इसके आगे आयेगा। किन्तु इस चीज के व्योरे का उस केन्द्र बिन्दु से बहुत ही थोड़ा सम्बन्ध हैं, जिसे मैंने अपनी निगाह के सामने रखा है।
हम दो भाइयों को राजकोट से पोरबन्दर ले जाया गया। वहाँ हल्दी चढ़ाने आदि की विधि हुई, वह मनोरंजक होते हुए भी उसकी चर्चा छोड़ देने लायक है।
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