जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
संसार-प्रवेश
बड़े भाई ने मुझे पर बड़ी-बड़ी आशायें बाँध रखी थी। उनको पैसे का, कीर्ति का और पद का लोभ बहुत था। उनका दिल बादशाही था। उदारता उन्हें फिजूलखर्ची की हद तक ले जाती थी। इस कारण और अपने भोले स्वभाव के कारण उन्हें मित्रता करने में देर न लगती थी। इस मित्र-मण्डली की मदद से वे मेरे लिए मुकदमे लाने वाले थे। उन्होंने यह भी मान लिया था कि मैं खूब कमाऊँगा, इसलिए घरखर्च बढ़ा रखा था। मेरे लिए वकालत का क्षेत्र तैयार करनें में भी उन्होंने कोई कसर नहीं रखी थी।
जाति का झगड़ा मौजूद ही था। उसमें दो तड़े पड़ गयी थी। एक पक्ष ने मुझे तुरन्त जाति में ले लिया। दूसरा पक्ष न लेने पर डटा रहा। जाति में लेने वाले पक्ष को संतुष्ट करने के लिए राजकोट ले जाने से पहले भाई मुझे नासिक ले गये। वहाँ गंगा-स्नान कराया और राजकोट पहुँचने पर जाति-भोज दिया।
मुझे इस काम में कोई रुचि न थी। बड़े भाई के मन में मेरे लिए अगाध प्रेम था। मैं मानता हूँ कि उनके प्रति मेरी भक्ति भी वैसी ही थी। इसलिए उनकी इच्छा को आदेश मानकर मैं यंत्र की भाँति बिना समझे उनकी इच्छा का अनुसरण करता रहा। जाति का प्रश्न इससे हल हो गया।
जाति की जिस तड़ से मैं बहिस्कृत रहा, उसमें प्रवेश करने का प्रयत्न मैंने कभी नहीं किया, न मैंने जाति के किसी मुखिया के प्रति मन में कोई रोष रखा। उनमें मुझे तिस्कार से देखने वाले लोग भी थे। उनके साथ मैं नम्रता का बरताव करता था। जाति के बहिस्कार सम्बन्धी कानून का मैं सम्पूर्ण आदर करता था। अपने सास-ससुर के घर अथवा अपनी बहन के घर मैं पानी तक न पीता था। वे छिपे तौर पर पिलाने को तैयार होते, पर मैं जो काम खुले तौर से न किया जा सके, उसे छिपकर करने के लिए मेरा मन ही तैयार न होता था।
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