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जयशंकर प्रसाद की कहानियां

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :435
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9810
आईएसबीएन :9781613016114

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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ

28. ब्रह्मर्षि

नवीन कोमल किसलयों से लदे वृक्षों से हरा-भरा तपोवन वास्तव में शान्ति-निकेतन का मनोहर आकार धारण किये हुए है, चञ्चल पवन कुसुमसौरभ से दिगन्त को परिपूर्ण कर रहा है; किन्तु, आनन्दमय वशिष्ठ भगवान् अपने गम्भीर मुखमण्डल की गम्भीरमयी प्रभा से अग्निहोत्र-शाला को आलोकमय किये तथा ध्यान में नेत्र बन्द किये हुए बैठे हैं। प्रशान्त महासागर में सोते हुए मत्स्यराज के समान ही दोनों नेत्र अलौकिक आलोक से आलोकित हो रहे हैं।

रघुकुल-श्रेष्ठ महाराज त्रिशंकु सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं, किन्तु सामर्थ्य किसकी जो उस आनन्द में बाधा डाले। ध्यान भग्न हुआ, वशिष्ठजी को त्रिशंकु ने साष्टांग दण्डवत् किया, उन्होंने आशीर्वाद दिया। सबको बैठने की आज्ञा हुई, सविनय सब बैठे।

महाराज को कुछ कहते देखकर ब्रह्मर्षि ने ध्यान से सुनना आरम्भ किया। त्रिशंकु ने पूछा- ”भगवन्! यज्ञ का क्या फल है?”

फिर प्रश्न किया गया- ”मनुष्य शरीर से स्वर्ग-प्राप्ति हो सकती है?”

उत्तर मिला- ”नहीं।”

फिर प्रश्न किया गया- ”आपकी कृपा से सब हो सकता है?”

उत्तर मिला- ”राजन्, उसको तुम न तो पा सकते हो और न हम दिला सकते हैं।”

त्रिशंकु वहाँ से उठकर, प्रणामोपरान्त दूसरी ओर चले।

थोड़ी ही दूर पर भगवान वशिष्ठ के पुत्रगण आपस में शास्त्रवाद कर रहे थे। त्रिशंकु ने उन्हें प्रणाम किया, और कहा- ”आप मानव-शरीर से स्वर्ग जाने का फल देनेवाला यज्ञ करा सकते हैं?”

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