नई पुस्तकें >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
“माँझी, उस पार चलोगे?” एक कोमल कण्ठ, वंशी की झनकार।
“चलूँगा क्यों नहीं, उधर ही तो मेरा घर है। मुझे लौटकर जाना है।”
“मुझे भी आवश्यक कार्य है। मेरा प्रियतम उस पार बैठा है। उससे मिलना है। जल्द ले चलो।”-यह कहकर एक रमणी आकर बैठ गई। डोंगी हलकी हो गई, जैसे चलने के लिए नाचने लगी हो। सेवक सन्ध्या के गहरे प्रकाश में उसे आँखें गड़ाकर देखना चाहता था। रमणी खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली-”सेवक, तुम मुझे देखते रहोगे कि खेना आरम्भ करोगे।”
“मैं देखता चलूँगा, खेता चलूँगा। बिन देखे भी कोई खे सकता है।”
“अच्छा, वही सही। देखो, पर खेते भी चलो। मेरा प्रिय कहीं लौट न जाय, कहीं लौट न जाय; शीघ्रता करो।”- रमणी की उत्कण्ठा उसके उभरते हुए वक्ष-स्थल में श्वास बनकर फूल रही थी। सेवक डाँडे चलाने लगा। दो-चार नक्षत्र नील गगन से झाँक रहे थे। अवरुद्ध समीर नदी की शीतल चादर पर खुलकर लोटने लगा। सेवक तल्लीन होकर खे रहा था। रमणी ने पूछा- ”तुम्हारे और कौन है?”
“कोई नहीं, केवल माँ है।”
नाव किनारे पहुँच गई। रमणी उतरकर खड़ी हो गई। बोली- ”तुमने बड़े ठीक समय से पहुँचाया। परन्तु मेरे पास क्या है, जो तुम्हें पुरस्कार दूँ।”
वह चुपचाप उसका मुँह देखने लगा।
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