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जयशंकर प्रसाद की कहानियां

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :435
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9810
आईएसबीएन :9781613016114

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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ


शंकर- यहाँ तक! अच्छा, झगड़ा किस बात का है?

नारद- यही कि देवसेना-पति होने से कुमार अपने को बड़ा समझते हैं, और (जननी की ओर देखकर) बुद्धिमान होने से गणेश अपने को बड़ा समझते हैं।

जननी- हाँ-हाँ, ठीक ही तो है, गणेश बड़ा बुद्धिमान है।

शंकर ने देखा कि यह तो यहाँ भी कलह उत्पन्न किया चाहता है, इसलिए वे बोले-वत्स! तुम इसमें अपने पिता को ही पञ्च मानो, कारण कि जिसको हम बड़ा कहेंगे, दूसरा समझेगा कि पिता ने हमारा अनादर किया है-अस्तु, तुम शीघ्र ही इसका आयोजन करके दोनों को शान्त करो।

नारद ने देखा कि, यहाँ दाल नहीं ग़लती, तो जगत्पिता के चरण-रज लेकर बिदा हुए।

नारद अपने पिता ब्रह्मा के पास पहुँचे। उन्होंने सब हाल सुनकर कहा- वत्स! तुझे क्या पड़ी रहती है, जो तू लड़ाई-झगड़ों में अग्रगामी बना रहता है, और व्यर्थ अपवाद सुनता है?

नारद- पिता! आप तो केवल संसार को बनाना जानते हैं, यह नहीं जानते कि संसार में कार्य किस प्रकार से चलता है। यदि दो-चार को लड़ाओ न, और उनका निबटारा न करो, तो फिर कौन पूछता है? देखिए, इसी से देव-समाज में नारद-नारद हो रहा है, और किसी भी अपने पुत्र की आपने देव-समाज में इतनी चर्चा सुनी है?

ब्रह्मा- तो क्या तुझे प्रसिद्धि का यही मार्ग मिला है?

नारद- मुझे तो इसमें सुख मिलता है-

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