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जयशंकर प्रसाद की कहानियां

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :435
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9810
आईएसबीएन :9781613016114

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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ


गर्भ-गृह के द्वारपालों पर उसकी दृष्टि पड़ी। वे तेल से चुपड़े हुए काले-काले दूत अपने भीषण त्रिशूल से जैसे युवक की ओर संकेत कर रहे थे। वह ठिठक गया। सामने देवगृह के समीप घृत का अखण्ड-दीप जल रहा था। केशर, कस्तूरी और अगरु से मिश्रित फूलों की दिव्य सुगन्ध की झकोर रह-रहकर भीतर से आ रही थी। विद्रोही हृदय प्रणत होना नहीं चाहता था, परन्तु सिर सम्मान से झुक ही गया।

देव! मैंने अपने जीवन में जान-बूझ कर कोई पाप नहीं किया है। मैं किसके लिए क्षमा माँगूं? गजनी के सुल्तान की नौकरी, वह मेरे वश की नहीं; किन्तु मैं माँगता हूँ.....एक बार उस, अपनी प्रेम-प्रतिमा का दर्शन! कृपा करो। मुझे बचा लो।

प्रार्थना करके युवक ने सिर उठाया ही था कि उसे किसी को अपने पास से खिसकने का सन्देह हुआ। वह घूम कर देखने लगा। एक स्त्री कौशेय वसन पहने हाथ में फूलों से सजी डाली लिए चली जा रही थी। युवक पीछे-पीछे चला। परिक्रमा में एक स्थान पर पहुँच कर उसने सन्दिग्ध स्वर से पुकारा- इरावती! वह स्त्री घूम कर खड़ी हो गई। बलराज अपने दोनों हाथ पसारकर उसे आलिंगन करने के लिए दौड़ा। इरावती ने कहा- ठहरो। बलराज ठिठक कर उसकी गम्भीर मुखाकृति को देखने लगा। उसने पूछा- क्यों इरा! क्या तुम मेरी वाग्दत्ता पत्नी नहीं हो? क्या हम लोगों का वह्निवेदी के सामने परिणय नहीं होने होने वाला था? क्या...?

हाँ, होने वाला था किन्तु हुआ नहीं, और बलराज! तुम मेरी रक्षा नहीं कर सके। मैं आततायी के हाथ से कलंकित की गयी। फिर तुम मुझे पत्नी-रूप में कैसे ग्रहण करोगे? तुम वीर हो! पुरुष हो! तुम्हारे पुरुषार्थ के लिए बहुत-सी महत्वाकांक्षाएँ हैं। उन्हें खोज लो, मुझे भगवान् की शरण में छोड़ दो। मेरा जीवन, अनुताप की ज्वाला से झुलसा हुआ मेरा मन, अब स्नेह के योग्य नहीं।

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