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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

महादेवीजी की रचनाएँ

महादेवीजी प्रमुख रूप से कवयित्री हैं। और कवयित्री के रूप में ही उनकी विशेष ख्याति है, तथापि उन्होंने पद्य के अतिरिक्त प्रौढ़ गद्यकाव्य भी दिये हैं। उनकी निम्नलिखित रचनाएँ अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं-

(१) काव्य- नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत और दीप शिखा। यामा में नीहार, रश्मि और नीरजा की कविताओं का संग्रह है।  

(२) निबन्ध- अतीत के चलचित्र, शृंखला की कड़ियाँ,

(३) आलोचना- हिन्दी का विवेचनात्मक गद्य।

नीहार- यह सन् १९३० में प्रकाशित हुआ था। यूँ तो महादेवी जी सन् १९२६ से ही चाँद में अपनी रचनाएँ देती रहती थीं। पर 'नीहार' के प्रकाशित होते ही हिन्दी-जगत् का ध्यान महादेवीजी की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हो गया। इनकी अधिकांश कविताएँ २८-२९ में लिखी गई थीं। इसमें 'मुरझाया फूल', 'उस पार', 'कहाँ', 'स्मृति',  'आँसू की माला' आदि शीर्षक कविताएँ संकलित की गई हैं। इस काव्य में व्यक्तिगत अनुभूति तीव्र रूप में अभिव्यक्त हुई है।

रश्मि- इसमें सन् १९३० से ३२ तक की कविताएँ संकलित हैं। इस संग्रह में महादेवी जी की दृष्टि अपनी ओर कम और बाहर की ओर अधिक है। वे अनेक गम्भीर प्रश्नों पर विचार करने लगती हैं, यह भी एक चिन्तनप्रधान काव्य है। फलत: इसमें भी कवित्व की भावना उतनी विकसित नहीं हो पाई।

नीरजा- वास्तव में महादेवीजी का यह पहला कविता-संग्रह है, जिसमें चिन्तन का स्थान अनुभूति ने ले लिया है। प्रिय-विरह इनके काव्य का मुख्य विषय बन गया है। मिलन के मधुर क्षणों की अपेक्षा प्रियविरह की वेदना कवयित्री को अधिक प्रिय है। यही कारण है कि नीरजा की अधिकतर कविताओं में विरह-कथा की छटा छाई हुई है।

सान्ध्यगीत- यह संग्रह सन् १९३६ में प्रकाशित हुआ। इसमें कला, अनुभूति और साधना की त्रिवेणी का संगम हो गया है। यहाँ मिलन और विरह के गीतों की ही प्रधानता है, नीरजा के समान विषयों की विविधता नहीं।

दीपशिखा- यह सन् १९४२ में प्रकाशित हुई। इसमें कवयित्री की कलात्मक साधना अपने अत्यन्त निखरे हुए रूप में प्रकट हुई है। दीपशिखा में संदेह और अविश्वासों का स्थान भी दृढ़ विश्वास ने ले लिया है। अब उन्हें प्रिय की प्रतीक्षा नहीं है क्योंकि उन्होंने विरह ही में अपने प्रियतम को पा लिया है। महादेवी के सम्बन्ध में यह ठीक कहा गया है कि वे स्वर्गीय गीतों की सर्वश्रेष्ठ गायिका हैं। अपने गीतों में वह वेदना की प्रधान उपासिका के रूप में प्रकट हुई हैं। गीति-काव्य के क्षेत्र में एक नारी के कोकिल-कंठ की विरह-विह्वल वाणी पाठक को तत्काल उन्मत्त बना देती है। भाषा के क्षेत्र में महादेवी का स्थान अनुपम है। संस्कृतमय होने पर भी उनकी भाषा में सरलता प्रवाह और माधुर्य है। महादेवी की कविताओं में भाव, भाषा और संगीतात्मक सुन्दरता की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है।

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