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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

इस घटना से प्रेमचंद को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अपना नाम धनपतराय व नवाबराय बदल कर 'प्रेमचंद' के नाम से साहित्य-निर्माण आरम्भ कर दिया। आगे चलकर इस 'प्रेमचंद' उपनाम से ही वे हिन्दी- जगत् में विख्यात हुए। इन्हीं दिनों उनकी पत्नी इनसे लड़-झगड़कर अपने मायके चली गई, जिसे फिर कभी नहीं बुलाया गया। पत्नी के चले जाने से प्रेमचंद का हृदय संवेदना और सहानुभूति पाने के लिए तड़प उठा। ऐसे ही समय शिवरानी देवी ने उनके सम्पर्क में आकर इस महान् कलाकार के जीवन-निर्माण में महत्त्वपूर्ण योग दिया।

शिवरानी स्वयं बाल-विधवा थीं। जिन रूढ़िवादों से प्रेमचन्द का हृदय उत्पीड़ित था, वे भी उन्हीं की शिकार हो चुकी थीं, अत: उन्होंने बड़े साहस के साथ समाज की परवाह न कर विधवा शिवरानी के साथ विवाह कर लिया। शिवरानी में प्रेमचन्द जी को मनचाहे गुण प्राप्त हो गये। उनका जीवन सरस, सुन्दर और सप्राण हो उठा जिसका प्रभाव उनकी आगामी रचनाओं पर भी स्पष्ट लक्षित होता है। पीछे उन्हें अपनी पहली पत्नी के विच्छेद पर पश्चात्ताप भी हुआ और वे जन्म-भर उसका भरण-पोषण करते रहे, पर शिवरानी देवी के बार-बार आग्रह करने पर भी वे उसे स्वयं बुलाने नहीं गये। उनकी इस मानसिक स्थिति का चित्रणा एक आलोचक ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में इस प्रकार किया है। शायद-''प्रेमचंद के भीतरी पुरुष को यह समझौता- या प्रत्यावर्त्तन गवारा न हुआ, यह दूसरी बात है; पर उन्हें इसका भान जरूर हो गया कि भारतीय नारी के ओज का उन्होंने उचित आदर नहीं किया और अपनी इस गलती का परिमार्जन उन्होंने अपने नारी- पात्रों के उन्नयन में किया! किया तो बंगाल के शरतचन्द्र ने भी है, पर प्रेमचंद की नारी अपनी निष्ठा को नीति से जोड़कर रखती है, जबकि शरत् की नारी नीति के बन्धन तोड़कर निष्ठा का पालन करती है। शिवरानी के त्याग और धैर्य से प्रेमचंद का साहित्य पनप उठा है।' शिवरानी में उन्हें प्रथम प्रीति का उन्माद तो न मिला होगा, पर नारीत्व की पूर्णता अवश्य मिली, सबसे अधिक उन्हें उनमे मातृत्व की छाया मिली। इसी कारण बाद में उन्होंने अपने-आपको शिवरानी की स्नेहमयी रक्षा में बच्चे की भांति सौंप डाला।'' सन् १९१० में इन्टर परीक्षा में पास हो गये और बाद में उन्होंने बी. ए. भी कर लिया।

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