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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

जयशंकर 'प्रसाद'

जन्म सं० १९४६ - कैलाशवास सं० १९९३

प्रसाद जी का जन्म सं० १९४६ में काशी के एक ऐश्वर्यशाली, महादानी वैश्य-वंश में हुआ था। आपके पितामह शिवरत्न साहू जी बनारस के परोपकारी दानियों में श्रेष्ठ गिने जाते थे। प्रसाद जी के पिता का नाम श्री देवीप्रसाद जी था। प्रसाद जी बारह वर्ष के ही थे कि उनके पिता स्वर्ग सिधार गये। उस समय प्रसाद जी सातवीं श्रेणी में पढ़ रहे थे। पिता की असामयिक मृत्यु के कारण आपका विद्यालय जाना बन्द हो गया और आपको परिवार का सारा भार संभालना पड़ा। आपने स्कूल छोड्‌कर घर पर ही पढ़ने का प्रबन्ध कर लिया। आप कुछ समय तक संस्कृत का अध्ययन करते रहे।

उन्नीस वर्ष की आयु में ही आपकी गम्भीर ऐतिहासिक गवेषणाओं तथा छायावादी रचनाओं में प्रवृत्ति दिखाई दी। क्रमश: आपने हिन्दी- साहित्य की ठोस सेवाएँ कीं। आपने कई रूपों में हिन्दी-साहित्य की श्रीवृद्धि की। उनमें सर्वप्रथम तो आपने हिन्दी-साहित्य के काव्य-क्षेत्र को परिष्कृत कर सुरुचि की ओर प्रवृत्त किया और वास्तविक सत्यमार्ग पर चलाया। प्राचीन काव्यकार या तो शृङ्गार से सर्वथा अछूते रहा करते थे या ऐसे शृंगार में मग्न रहते थे कि नाम लेते ही घृणा उत्पन्न हो जाय। वास्तव में ये दोनों ही मार्ग त्याज्य हैं। किन्तु प्रसाद जी ने साहित्य क्षेत्र में प्रवेश कर सात्विक प्रेम का परिचय कराते हुए कर्तव्य पालन का उपदेश दिया।

हिन्दी में आप छायावाद के प्रवर्त्तक माने जाते हैं। प्रसाद जी ने नवीन शैली तथा नये विचारों द्वारा हिन्दी-साहित्य के भण्डार को अपूर्णता के दोष से ही नहीं बचाया प्रत्युत सैंकड़ों कवियों को अपने मार्ग पर चलाकर अपना अनुयायी बनाकर सर्वदा के लिए उसे अक्षय बना दिया। मौलिक नाटक-लेखकों में भी आप ही हिन्दी-साहित्य के सर्वश्रेष्ठ नाटककार और पथप्रदर्शक माने जाते हैं। प्राचीन युग की गवेषणा, विशेषकर बौद्ध-युग के इतिहास के अनुसंधान के कार्य से तो आपका स्थान हिन्दी-साहित्य में बहुत मान्य है।

इसके अतिरिक्त आपके उपन्यास, आख्यायिकाएँ भी अत्युत्कृष्ट हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आपकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। आपने वर्तमान साहित्य के प्रचलित विषयों पर तो लिखा ही है साथ ही नई-नई शैलियों में भी बहुत कुछ लिखा है। सर्वतोमुखी प्रतिभा की दृष्टि से हिन्दी-साहित्य में प्रसाद जी का स्थान गोस्वामी तुलसीदास तथा भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के समकक्ष है। आपकी वेश-भूषा, खान-पान सर्वथा साधारण ही था।

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