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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

सूरदास की जन्मांधता- सूरदास जन्मान्ध थे या बाद में अन्धे हुए-इस सम्बन्ध में भी आलोचकों में मतभेद है। 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' तथा उसकी 'टीका' में लिखा है कि सूरदास जन्मांध थे, यहाँ तक कि उनकी आँखों के निशान भी नहीं थे। तदनुसार प्रभुदयाल मित्तल आदि कई आलोचक यह मानते हैं कि सूरदास जन्मांध ही थे, किन्तु अनेक विद्वानों का मत है कि वे जन्मांध नहीं थे; क्योंकि सूरदास ने जिन विविध रंग-रूपों, बाल-चेष्टाओं तथा व्यापारों का सजीब चित्रण अपने पदों में किया है वैसा स्वाभाविक चित्र अंकित करना एक जन्मांध व्यक्ति के लिए असंभव है। अपनी दिव्य प्रतिभा के द्वारा वे ऐसा चित्रण करने में समर्थ हो सके-यह श्रद्धालु, भावुक व्यक्ति भले ही मान लें पर आज का सजग आलोचक इसे कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। सूर को जन्मांध न मानने से भी उनके गौरव में किसी भी प्रकार की न्यूनता नही आती। अत: हमें निष्पक्ष भाव से यह स्वीकार करना चाहिए कि सूर जन्मांध नहीं थे। वे कब अन्धे हुए- इस सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं। डा० रामकुमार वर्मा ने अपने  'हिन्दी-साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास' में यह सिद्ध किया है कि वे वृद्धावस्था में अन्धे हुए थे। कुछ लोगों का कहना है कि वे बचपन में ही अंधे हो गये थे किन्तु हमारा मत है कि वे न बुढ़ापे में अन्धे हुए न बचपन में। पच्चीस-तीस वर्ष की अवस्था में वे अन्धे हो गये। इसमें भी संदेह नहीं कि उन्होंने 'बिल्वमंगल' के प्रसिद्ध सूरदास की भाँति अपने हाथों अपनी आँखें नहीं फोडी थीं; क्योंकि जैसाकि 'विल्वमंगल' के सूरदास के बारे में कहा जाता है कि वे किसी सुन्दरी पर आसक्त थे और फिर विरक्ति के कारण उन्होंने अपनी आँखें स्वयं फोड़ लीं। यदि हमारे सूरदास के साथ वास्तव में ऐसी कोई घटना घटी होती तो वे भगवान् को-

'सूरदास सों कहा निठुरई नैनन हूँ की हानि' 

कह कर यह उलाहना क्यों देते कि हे भगवान्, आप मुझ पर क्यों इतने निठुर हो गये हैं जो आपने मेरी आँखें भी छीन ली हैं।

इसी से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वे जन्मांध नहीं थे; क्योंकि पहले आँखें थीं वे छिन गईं; इसीलिए यह उलाहना दिया गया है।  'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' के अनुसार यदि सूरदास के जन्म-समय में ही नेत्र-या आँखों के चिह्न भी-न होते तो 'सूरदास नैनन हूं की हानि' का उलाहना क्यों देते। अत: सिद्ध होता है कि सूरदास न तो जन्मांध थे और न अपने-आप ही वे अन्धे हुए थे। वे वृद्धावस्था में भी अन्धे नहीं हुए थे क्योंकि सं० १५६७ में उनका वल्लभाचार्य जी महाराज के साथ प्रथम परिचय हुआ था। उस समय वे अन्धे ही थे, अत: मानना होगा कि सूरदास ३२ वर्ष से पूर्व ही अन्धे हो चुके थे।

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"हिंदी साहित्य का दिग्दर्शन" समय की आवश्यकताओं के आलोक में निर्मित पुस्तक है जोकि प्रवाहमयी भाषा का साथ पाकर बोधगम्य बन गयी है। संवत साथ ईस्वी सन का भी उल्लेख होता तो विद्यार्थियों को अधिक सहूलियत होती।

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