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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

कबीर के गुरु- इस सम्बन्ध में यद्यपि बहुमत यही मानता है कि कबीर के गुरु रामानन्द जी थे तथापि कुछ आलोचक साम्प्रदायिक आग्रह के कारण 'शेख तकी' को उनका गुरु मानते हैं; पर वास्तव में शेख तकी उनके गुरु नहीं थे, रामानन्द जी ही थे। यह निम्न पद से सिद्ध होता है-

काशी में हम परगट भये, रामानन्द चेताये हैं।

इस पद में रामानन्द जी को स्पष्ट रूप से 'गुरु' कहा गया है। इसके विपरीत शेख तकी को वे गुरु के रूप में नहीं प्रस्तुत अपने पदों में एक शिष्य के रूप में सम्बोधित करते हुए 'सुनहु सेख तकी' आदि कहते हैं।

स्वभाव व जीवनवृत्त आदि-कबीर वास्तव में एक महापुरुष थे। वे दिव्य प्रतिभासम्पन्न महामानव और योगी के रूप में अवतरित हुए थे। पंक में से कमल के समान वे प्रकट हुए थे।

कहाँ तो सर्वथा निरक्षर, म्लेच्छ, मुस्लिम जुलाहा-वंश और कहाँ यह महापंडित, परमवैष्णव, क्रान्ति का अग्रदूत, युग-प्रवर्तक महाकवि। माना कि कबीर भी सर्वथा निरक्षर थे और 'मसि कागद छूयो नहीं' की उक्ति को वे अक्षरश: चरितार्थ करते थे, फिर भी वे इतने बड़े रहस्यदर्शी महाकवि थे कि आज के 'विश्वकवि' भी उनकी रचनाओं पर मुग्ध हैं। वेद-वेदांत, उपनिषद् और दर्शनों के जिन गूढ़ रहस्यों को बड़े-बड़े ज्ञानी पंडित भी समझ नहीं पाते, उन्हीं को सुन-सुनाकर न केवल समझ लेना प्रत्युत दूसरों को समझाने के लिए कविता के रमणीय रूप में ढाल देना वास्तव में असाधारण प्रतिभा का काम है।

कबीर सच्चे अर्थों में कर्मयोगी थे। वे जीवन-भर कविता करते और उपदेश देते हुए भी अपने ताने-बाने में मग्न रहे। गुरुडम के वे भयंकर विरोधी थे। इसीलिए वे जीवन-भर कपड़ा बुनकर अपना निर्वाह करते रहे। वे चाहते तो, जैसा कि बाद में उनके शिष्यों ने किया, अपने नाम से बडे-बड़े मठ बनवा कर पुजवा सकते थे; किन्तु वे तो जीवन-भर कर्म करते हुए संतोषमय जीवन में हरि-भजन को अपना ध्येय बना चुके थे। ईश्वर पर दृढ़ विश्वास, संतोष, सदाचार आदि गुणों को उन्होंने अपने जीवन में ढाल लिया था।

साधू संग्रह ना करे, उदर-समाता लेय।
आगे पीछे हरि खड़े, जब मांगे तब देय।।

पूर्वोक्त पद में परम सन्तोष की पराकाष्ठा के साथ-साथ प्रण की दृढ़ता भी पाई जाती है। ऐसा आत्मविश्वास या परमात्मविश्वास अन्यत्र कहाँ मिल सकता है?

बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो बकरी को खात हैं, तिनको कहा हवाल।।

अहिंसावृत्ति का कैसा जोरदार समर्थन उपर्युक्त कविता में किया  गया है।

दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी आह।
बिना श्वास की खाल ते, लोह भस्म भय जाह।।

इस पद में दूसरों को सताने वाले शोषकों को किस निर्भीकता से फटकारा गया है। वास्तव में कबीर की कथनी तथा करनी एक-सी थी।'

वे सच्चे कर्मवीर कवि थे। आज के कवियों की भाँति कविता को वे अर्थोपार्जन का साधन नहीं मानते थे। वे शरीर-यात्रा के लिए हाथ-पैर हिलाते थे, श्रम करते थे और आत्म-सन्तोष के लिए कविता करते या हरिगुण गाते थे। उन्होंने जो कुछ कहा है उसके प्रत्येक अक्षर में देश.जाति और समाज के हितचिन्तन की प्रवृत्ति स्पष्ट लक्षित होती है।

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