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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

परिस्थितियाँ-

मुग़ल-साम्राज्य के पतन एवं ब्रिटिश- साम्राज्य के स्थापित हो जाने के कारण सं० १९०० के लगभग भारतीय समाज की विचारधारा में एक बहुत बड़ा मोड़ उपस्थित हो गया। अब तक हिन्दू और मुसलमान भाई-भाई की भाँति रह रहे थे। औरंगजेब आदि कुछ धर्मान्ध मुस्लिम सम्राटों के अत्याचार होने पर भी सामान्य मुस्लिमवर्ग हिन्दुओं के साथ बड़े प्यार से हिल-मिलकर रहता रहा। पर अब सात समुद्र पार से आये हुए फिरंगी ने हिन्दू और मुसलमान दोनों को पदाक्रान्त कर डाला। इन पश्चिमी जातियों की दासता से मुक्ति पाने के लिए भारतराष्ट्र ने अनेक प्रकार से प्रयत्न प्रारंभ कर दिये। अंग्रेजों ने राजनैतिक रूप से हमें पराधीन कर हमारे पैरों में सांस्कृतिक बेड़ियाँ डालने का प्रयत्न किया। हमारे मन और मस्तिष्क को गुलाम बनाने के लिए पश्चिमी सभ्यता, रहन-सहन और भाषा-भूषा का प्रचार किया जाने लगा। इस भोगवादी पश्चिमी विचारधारा के विषैले प्रभाव को रोकने के लिए भारत के सुपूत भी कटिबद्ध हो गये।

अब तक साहित्य केवल पद्य में ही लिखा जाता रहा; क्योंकि उस साहित्य में विचारों के स्थान पर भावों की ही प्रधानता थी। पर अब यूरोपियन विचारधारा का खंडन करने के लिए वैसे ही सशक्त विचारों के प्रकाशन की आवश्यकता थी। चूँकि विचारों का आदान-प्रदान पद्य में न होकर गद्य में ही हो सकता है इसलिए इस युग में पद्य का स्थान गद्य ने ले लिया। आरंभ से लेकर आज तक के साहित्य में राष्ट्रीय भावों की प्रधानता के कारण इस युग को राष्ट्र-चेतनाकाल सार्थक नाम दिया गया है। गद्य की प्रधानता के कारण इसे गद्य-काल भी कहा गया है। हिन्दी में नाटक-रचना का आरंभ भी इसी युग में हुआ।

इस काल का साहित्य १. श्रव्य तथा २. दृश्य-इन दो मुख्य भागों में विभक्त होता है। श्रव्य काव्य भी १. गद्य और २. पद्य दो भागों में बँट जाता है। गद्य के अन्तर्गत-कथा-कहानी व उपन्यास, निबन्ध, जीवन-चरित्र आदि अनेक भेद हैं। पद्य के भी प्रबन्ध, मुक्तक, गीति आदि कई रूप हो गये। दृश्य काव्य के भी नाटक, एकांकी नाटक, रेडियोरूपक आदि कई भेद हैं। इस प्रकार इस काल का साहित्य शैली की दृष्टि से अनेक रूपों में लिखा जा रहा है। प्रारंभ में पद्य के लिए ब्रजभाषा तथा गद्य के लिए खड़ीबोली प्रयुक्त होती रही, पर अब गद्य और पद्य दोनों के लिए खड़ीबोली का प्रयोग होता है।

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