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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

रीतिकाल (सं. १७०० – १९००)

परिस्थितियाँ- काल के वेग के साथ भक्ति का प्रभाव भी मन्द पड़ने लगा। मुगल सम्राटों, राजा-रईसों तथा नवाबों की विलासप्रियता के कारण जनता व उसके प्रतिनिधि कलाकारों के हृदय में भी विलासिता के भाव भर गये। ये लोग आमोद-प्रमोद तथा रंगरलियों में मग्न रहने लगे। कृष्ण-भक्तों ने जो राधाकृष्ण के असंयत प्रेमचित्र खींचे थे, उनके कारण भी शृङ्गारिक भावनाओं के प्रचार में सहायता मिली। इस प्रकार बिहारी, देव, मतिराम, आलम, घनानन्द आदि एक के बाद दूसरे शृङ्गारिक कवियों ने शृङ्गारिक काव्यों का ढेर लगा दिया। किन्तु स्मरण रहे कि पहले वाला भक्ति- प्रवाह भी पूर्णतया नष्ट नहीं हुआ था। ये शृङ्गारिक कवि बीच-बीच में भक्ति की कविताएँ भी लिखते रहे तथा इस युग में भी बहुत-से कवि ऐसे हुए हैं, जो केवल भक्ति-सम्बन्धी साहित्य-निर्माण में लगे रहे।

औरंगजेब के अत्याचारों के कारण इस काल में सुप्त वीर-भावना फिर से जागरित हो उठी। फलत: भूषण, सूदन, लाल सरीखे वीर कवियों ने वीर-भावों से पूर्ण अपनी ओजस्विनी रचनाओं के द्वारा राष्ट्र के प्राणों में फिर से उत्साह और स्फूर्ति के भाव भर दिये।

इस काल का साहित्य अधिकतर ब्रजभाषा में लिखा गया है। शृंगार, वीरता, भक्ति, नीति आदि अनेक विषयों पर रचनाएँ हुई। केशव, मतिराम, देव, दास आदि अनेक आचार्यो ने छन्द, अलंकार, रस, शब्द-शक्ति आदि काव्यों का निरूपण करने वाले लक्षणग्रन्थ या 'रीतिग्रन्थ' भी इस युग में खूब लिखे। इस काल के अधिकतर कलाकार लक्षणोदाहरणों के रूप में ही कविताएँ लिखते रहे। इन रीति-ग्रंथों के आधिक्य के कारण ही इस काल का नाम 'रीतिकाल' पड़ा। इस काल के साहित्य को (१) शृंगारिक साहित्य, (२) भक्ति-साहित्य, (३) वीर-साहित्य - इन तीन प्रमुख भागों में विभक्त कर सकते हैं।

लेखकगण - इस काल के शृंगारिक धारा के प्रतिनिधि कवि बिहारी और वीरगाथा के द्वितीय उत्थान के प्रवर्तक व प्रतिनिधि कवि भूषण का विस्तृत वर्णन आगे किया जायगा। इनके अतिरिक्त निम्न कवि प्रसिद्ध हैं-

केशव - इनका जन्म संवत् १६१२ में और मृत्यु संवत् १६७३ में हुई। यह हिन्दीके प्रथम रीति-ग्रन्थकार-आचार्य माने जाते हैं। इनकी 'रामचन्द्रिका' में रामचरित्र, कविप्रिया में अलंकार तथा रसिकप्रिया में रसों का वर्णन है। 'जहाँगीर जसचन्द्रिका', 'विज्ञान-गीता', 'रतन-बावनी' तथा 'वीरसिंह देव-चरित्र' नामक इनकी चार अन्य रचनाएँ भी हैं।

मतिराम - इनका जन्म संवत् १६७४ में और मृत्यु संवत् १७७३ में हुई। 'रसराज', 'ललितललाम,' व 'मतिराम-सतसई' आदि इनकी रचनाएँ प्रसिद्ध हैं।

देव - जन्म संवत् १७३० में और मृत्यु १८२० में हुई। 'भावविलास', 'जाति-विलास,' 'रस-विलास' आदि इनके २७ ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं।

श्री गुरु गोविन्दसिंह - यह सिक्खों के दसवें और अन्तिम गुरु थे। इनका जन्म संवत् १७२३ में पटना में और सत्यलोक-वास १७६५ में गोदावरी के तट पर हुआ। ये जैसे स्वयं वीर थे वैसे ही इनकी रचनाएँ भी वीर भावों से भरी हुई हैं। 'दशम गुरु ग्रंथ' में संगृहीत कविताओं के अतिरिक्त 'चण्डी-चरित्र', 'सुनीति-प्रकाश,' 'सर्वलोह-प्रकाश' आदि अन्य वीर-काव्य भी इन्होंने लिखे हैं।

पद्माकर भट्ट - इनका जन्म सं० १८१० में तथा मृत्यु सं० १८९० में हुई। इन्होंने अनेक राजा-महाराजाओं के आश्रय में रहकर उनकी प्रशंसा में 'जगद्‌विनोद', 'हिम्मत-बहादुर-विरुदावलि', 'पद्माभरण' आदि अनेक ग्रन्थ बनाये। इनके बुढ़ापे मंि लिखे गये 'गंगालहरी' नामक काव्य से भक्ति और वैराग्य के भाव व्यक्त होते हैं। ये रीतिकाल के अन्तिम प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं।

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