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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807
आईएसबीएन :9781613015445

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


घर में तो अब विशेष काम रहा नहीं, प्यारी सारे दिन खेती-बारी के कामों में लगी रहती। खरबूजे बोये थे। वह खूब फले और खूब बिके। पहले सारा दूध घर में खर्च हो जाता था, अब बिकने लगा। प्यारी की मनोवृत्तियों में ही एक विचित्र परिवर्तन आ गया। वह अब साफ कपड़े पहनती, माँग-चोटी की ओर से भी उतनी उदासीन न थी। आभूषणों में भी रुचि हुई। रुपये हाथ में आते ही उसने अपने गिरवी गहने छुड़ाये और भोजन भी संयम से करने लगी। सागर पहले खेतों को सींच कर खुद खाली हो जाता था। अब निकास की नालियाँ बन्द हो गयी थीं। सागर में पानी जमा होने लगा और अब उसमें हल्की-हल्की लहरें भी थीं, खिले हुए कमल भी थे।

एक दिन जोखू हार से लौटा, तो अँधेरा हो गया था। प्यारी ने पूछा- अब तक वहाँ क्या करता रहा?

जोखू ने कहा- चार क्यारियाँ बच रही थी। मैंने सोचा, दस मोट और खींच दूँ। कल का झंझट कौन रखे।

जोखू अब कुछ दिनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मालिक उसके सिर पर सवार रहते थे, वह हीले-बहाने करता था। अब सब कुछ उसके हाथ में था। प्यारी सारे दिन हार में थोड़ी ही रह सकती थी; इसलिए अब उसमें जिम्मेवारी आ गयी थी।

प्यारी ने लोटे का पानी रखते हुए कहा- अच्छा, हाथ मुँह धो डालो। आदमी जान रख कर काम करता है, हाय-हाय करने से कुछ नहीं होता। खेत आज न होते, कल होते, क्या जल्दी थी।

जोखू ने समझा, प्यारी बिगड़ रही है। उसने तो अपनी समझ में कारगुजारी की थी और समझा था, तारीफ होगी। यहाँ आलोचना हुई। चिढ़ कर बोला- मालकिन, दाहने-बायें दोनों ओर चलती हो। जो बात नहीं समझती हो, उसमें क्यों कूदती हो? कल के लिए तो उँचवा के खेत पड़े सूख रहे हैं। आज बड़ी मुसकिल से कुआँ खाली हुआ। सबेरे मैं न पहुँचता, तो कोई और आकर न छेक लेता? फिर अठवारे तक राह देखनी पड़ती। तब तक तो सारी ऊख बिदा हो जाती।

प्यारी उसकी सरलता पर हँस कर बोली- अरे, तो मैं तुझे कुछ कह थोड़ी रही हूँ, पागल। मैं तो कहती हूँ कि जान रख कर काम कर। कहीं बीमार पड़ गया, तो लेने के देने पड़ जायँगे।

जोखू- कौन बीमार पड़ जायगा, मैं? बीस साल में कभी सिर तक तो दुखा नहीं; आगे की नहीं जानता। कहो रात-भर काम करता रहूँ।

प्यारी- मैं क्या जानूँ, तुम्ही अँतरे दिन बैठे रहते थे, और पूछा जाता था, तो कहते थे-जुर आ गया था, पेट में दरद था।

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