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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807
आईएसबीएन :9781613015445

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग

3. स्वामिनी

शिवदास ने भंडारे की कुंजी अपनी बहू रामप्यारी के सामने फेंककर अपनी बूढी आँखों में आँसू भर कर कहा- बहू, आज से गिरस्ती की देख-भाल तुम्हारे ऊपर है। मेरा सुख भगवान् से नहीं देखा गया, नहीं तो क्या जवान बेटे को यों छीन लेते! उसका काम करने वाला तो कोई चाहिए। एक हल तोड़ दूँ तो गुजारा न होगा। मेरे ही कुकरम से भगवान् का यह कोप आया है, और मैं ही अपने माथे पर उसे लूँगा। बिरजू का हल अब मैं ही सँभालूँगा। अब घर की देख-रेख करने वाला, धरने-उठानेवाला तुम्हारे सिवा दूसरा कौन है? रोओ मत बेटा, भगवान् की जो इच्छा थी, वह हुआ; और जो इच्छा होगी, वह होगा। हमारा-तुम्हारा क्या बस है? मेरे जीते-जी तुम्हें कोई टेढ़ी आँख से देख भी न सकेगा। तुम किसी बात का सोच मत करो। बिरजू गया, तो मैं तो अभी बैठा ही हुआ हूँ।

रामप्यारी और रामदुलारी दो सगी बहनें थीं। दोनों का विवाह-मथुरा और बिरजू-दो सगे भाइयों से हुआ। दोनों बहनें नैहर की तरह ससुराल में भी प्रेम और आनन्द से रहने लगीं। शिवदास को पेन्शन मिली। दिन-भर द्वार पर गप-शप करते। भरा-पूरा परिवार देखकर प्रसन्न होते और अधिकतर धर्म-चर्चा में लगे रहते थे; लेकिन दैवगति से बड़ा लड़का बिरजू बीमार पड़ा और आज उसे मरे हुए पंद्रह दिन बीत गये। आज क्रिया-करम से फुरसत मिली और शिवदास ने सच्चे कर्मवीर की भाँति फिर जीवन-संग्राम के लिए कमर कस ली। मन में उसे चाहे कितना ही दुःख हुआ हो, उसे किसी ने रोते नहीं देखा। आज अपनी बहू को देखकर एक क्षण के लिए उसकी आँखें सजल हो गयीं; लेकिन उसने मन को संभाला और रुद्ध कंठ से उसे दिलासा देने लगा। कदाचित् उसने सोचा था, घर की स्वामिनी बन कर विधवा के आँसू पुंछ जायँगे, कम-से-कम उसे इतना कठिन परिश्रम न करना पड़ेगा, इसलिए उसने भंडारे की कुंजी बहू के सामने फेंक दी थी। वैधव्य की व्यथा को स्वामित्व के गर्व से दबा देना चाहता था।

रामप्यारी ने पुलकित कंठ से कहा- यह कैसे हो सकता है दादा, कि तुम मेहनत-मजूरी करो और मैं मालकिन बन कर बैठू? काम-धन्धे में लगी रहूँगी, तो मन बदला रहेगा। बैठे-बैठे तो रोने के सिवा और कुछ न होगा।

शिवदास ने समझाया- बेटा, दैवगति से तो किसी का बस नहीं, रोने-धोने से हलाकानी के सिवा और क्या हाथ आयेगा? घर में भी तो बीसों काम हैं। कोई साधु-सन्त आ जाय, कोई पहना ही आ पहुँचे, तो उनके सेवा-सत्कार के लिए किसी को तो घर पर रहना ही पड़ेगा।

बहू ने बहुत से हीले किये, पर शिवदास ने एक न सुनी।

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