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प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9806
आईएसबीएन :9781613015438

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग


आज रामू को मरे सात साल हुए हैं। रजिया घर सम्भाले हुए है। दसिया को वह सौत नहीं, बेटी समझती है। पहले उसे पहनाकर तब आप पहनती हैं उसे खिलाकर आप खाती है। जोखू पढ़ने जाता है। उसकी सगाई की बातचीत पक्की हो गई। इस जाति में बचपन में ही ब्याह हो जाता है। दसिया ने कहा- बहन गहने बनवा कर क्या करोगी। मेरे गहने तो धरे ही हैं।

रजिया ने कहा- नहीं री, उसके लिए नये गहने बनवाऊंगी। अभी तो मेरा हाथ चलता हैं जब थक जाऊं, तो जो चाहे करना। तेरे अभी पहनने-ओढ़ने के दिन हैं, तू अपने गहने रहने दे।

नाइन ठकुरसोहाती करके बोली- आज जोखू के बाप होते, तो कुछ और ही बात होती।

रजिया ने कहा- वे नहीं हैं, तो मैं तो हूं। वे जितना करते, मैं उसका दूना करूंगी। जब मैं मर जाऊं, तब कहना जोखू का बाप नहीं है!

ब्याह के दिन दसिया को रोते देखकर रजिया ने कहा- बहू, तुम क्यों रोती हो? अभी तो मैं जीती हूं। घर तुम्हारा है जैसे चाहो रहो। मुझे एक रोटी दे दो, बस। और मुझे क्या करना है। मेरा आदमी मर गया। तुम्हारा तो अभी जीता है।

दसिया ने उसकी गोद में सिर रख दिया और खूब रोई- जीजी, तुम मेरी माता हो। तुम न होतीं, तो मैं किसके द्वार पर खड़ी होती। घर में तो चूहे लोटते थे। उनके राज में मुझे दुख ही दुख उठाने पड़े। सोहाग का सुख तो मुझे तुम्हारे राज में मिला। मैं दुख से नहीं रोती, रोती हूं भगवान् की दया पर कि कहां मैं और कहां यह खुशहाली!

रजिया मुस्करा कर रो दी।

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2. सौदा-ए-खाम

शाम का समय था। इलाहाबाद सेन्ट्रल जेल के सामने छतनार बरगद के पेड़ के नीचे दो सिपाही बैठे हुए थे। किशोरवय कारे सिंह जोर-जोर से भाँग पीस रहा था और यह कोशिश कर रहा था कि बट्टे के साथ सिल उठ आए, और काला-कलूटा रुस्तम खान धीरे-धीरे अफीम घोलता था। दोनों के चेहरे चमक रहे थे और दोनों मुस्करा- मुस्कराकर एक दूसरे की ओर देखते थे।

कारे सिंह ने कहा, ‘आज अच्छे आदमी का मुँह देखा था।’

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