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प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9806
आईएसबीएन :9781613015438

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग


आधा रास्ता पार करने के बाद कारे सिंह को एक प्रकार की स्फूर्ति अनुभव हुई। स्फूर्ति क्या थी, सन्तोष का सहारा था। उसने तेजी से पैर उठाए और बात की बात में जेल की दीवार पर जा पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही उसने दूसरी ओर निगाह दौड़ाई और उसके मन में गुदगुदी सी होने लगी। एक ओट में खड़ी हरनाम देवी अपनी ओर बुला रही थी। यह लिखना कि किस तरह कारे सिंह अपने साफे को सीढ़ी के एक डंडे से बाँधकर नीचे उतर गया और वहाँ उस रूपसी ने उससे क्या प्यार मोहब्बत की बातें कीं, आपस में क्या-क्या वादे हुए और फिर किस प्रकार वह उसे दीवार के ऊपर लाया, यह एक लम्बा किस्सा है। यह लिखना पर्याप्त है कि कारे सिंह ने वही किया जो एक मनचला आशिक ऐसी हालत में कर सकता था। हरनाम देवी को कद-काठी भरपूर मिली थी और जब कारे सिंह ने मैदान जीतने के लिए उसे अपनी पीठ पर लादा था तो उसकी कमर टूटी जाती थी। रूपसी ने ऐसे अन्दाज से आसन जमाया था मानो घोड़े की सवारी ही कर रही हो। मगर कारे सिंह ने ये सब मुसीबतें भी हँसते-हँसते झेल लीं। ये सब प्यार की देन हैं। शिकायत का एक शब्द भी मुँह पर न आया, हाँ अपने दिल से मजबूर था। इस तरह जब घंटे भर की मशक्कत के बाद फिर रुस्तम खान के पास आया तो उसकी साँस फूल रही थी और सारा शरीर पसीना-पसीना हो रहा था। रुस्तम खान ने उसे गोद में उठा लिया और हरनाम देवी से बहुत आदरपूर्वक कहा, ‘बाईजी, इस गुलाम का भी खयाल रहे।’

समय बहुत मूल्यवान था। हरनाम देवी बरगद की ओट में खड़ी हो गई। दोनों सिपाहियों ने झटपट वर्दी उतार फेंकी और तब रुस्तम खान ने दूसरे सिपाही को जगाकर पहरा बदला। वह एक पहाड़ी था, बहुत गुर्राया कि बारह नहीं बजे, अभी से तंग करने लगे। लेकिन, रुस्तम खान की खुशामद-दरामद ने उसे ठंडा कर दिया। इधर वह पहरे पर आया, उधर वे तीनों आदमी शहर की ओर चल दिए। हरनाम देवी ने सब्जी मंडी का पता दिया था। आगे-आगे कंधे पर बन्दूक रखे रुस्तम खान गर्व में फूले चले जाते थे मानो कोई मोर्चा ही जीतकर आए हों। बीच में हरनाम देवी थी, शर्मीली और छुईमुई सी। कारे सिंह सबसे पीछे थे, मौन, चिन्तित और भयभीत। कदम-कदम पर खटका होता था कि कहीं पीछे सिपाहियों की पलटन तो नहीं चली आ रही है। इस तरह लगभग आधा मील चलने के बाद पक्की सड़क मिली। हरनाम देवी एक ठंडी साँस लेकर बैठ गई और बोली कि अब मुझसे चला नहीं जाता, मेरे पाँव मन-मन भर के हो गए। एक इक्का लाओ। रुस्तम खान बहुत शर्मिन्दा हुए कि यह प्रस्ताव उनकी ओर से आना चाहिए था। अपनी गलती पर बहुत पछताए और तब कारे सिंह को बन्दूक सौंपकर इक्के की तलाश में चले।

आधी रात थी, चाँदनी छिटकी हुई, जमीन पर आँखें लुभाने वाली घास की चादर, पेड़ की शीतल छाया, फूलों से सजी हुई सम्पूर्ण प्रकृति आनन्द के सुरीले गान से सम्मोहित हो रही थी। यह स्वाभाविक था कि कारे सिंह के दिल में प्यार के विचारों का तूफान उठ खड़ा हो। हरनाम देवी ने एक लुभावनी अदा से उसके दोनों हाथ पकड़ लिए और बोली- ये बहुत शरारत करते हैं, मैं इन्हें बाँध दूँगी।

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