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			 कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
सुभागी के पहले रामू बोल उठा- हुआ क्या है, अभी कोई मरे थोड़े ही जाते हैं। 
सुभागी ने फिर उससे कुछ न कहा, सीधे सज्जनसिंह के पास गयी। उसके जाने के बाद रामू हँसकर स्त्री से बोला - त्रियाचरित्र इसी को कहते हैं। 
स्त्री - इसमें त्रियाचरित्र की कौन बात है? चले क्यों नहीं जाते? 
रामू - मैं नहीं जाने का। जैसे उसे लेकर अलग हुए थे, वैसे उसे लेकर रहें। मर भी जायें तो न जाऊँ। 
स्त्री- मर जायेंगे तो आग देने तो जाओगे, तब कहाँ भागोगे? 
रामू - कभी नहीं? सब कुछ उनकी प्यारी सुभागी कर लेगी। 
स्त्री - तुम्हारे रहते वह क्यों करने लगी! 
रामू - जैसे मेरे रहते उसे लेकर अलग हुए और कैसे! 
स्त्री - नहीं जी, यह अच्छी बात नहीं है। चलो देख आवें। कुछ भी हो, बाप ही तो हैं। फिर गाँव में कौन मुँह दिखाओगे? 
रामू - चुप रहो, मुझे उपदेश मत दो। 
उधर बाबू साहब ने ज्यों ही महतो की हालत सुनी, तुरंत सुभागी के साथ भागे चले आये। यहाँ पहुँचे तो महतो की दशा और खराब हो चुकी थी। नाड़ी देखी तो बहुत धीमी थी। समझ गये कि जिंदगी के दिन पूरे हो गये। मौत का आतंक छाया हुआ था। सजल नेत्र होकर बोले - महतो भाई, कैसा जी है? 
महतो जैसे नींद से जागकर बोले- बहुत अच्छा है भैया! अब तो चलने की बेला है। सुभागी के पिता अब तुम्हीं हो। उसे तुम्हीं को सौंपे जाता हूँ। 
			
						
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