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प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803
आईएसबीएन :9781613015407

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


इतने में एक तीसरा शख्स कमरे में दाखिल हुआ। वह एक निहायत खुशवजा  (परम्परावादी) और सजीला जवान था, जिसके चेहरे से अमारात और रियासत की आसार नुमायाँ थे। आते ही उसने मिस लैला को मुखातिब होकर कहा- ''इस वक्त अफ़रीका के रेगिस्तान में अजब बहार होगी।''

बारटन तो ऐसा खुशलबास आदमी न था, जैसा यह नवागत नौजवान लार्ड हरबर्ट, मगर उसके चेहरे से धीरता और शराफ़त टपक रही थी। उसके ख्यालात शायराना जरूर थे, मगर जबान में लसानी न थी, यही वजह थी कि साल-भर से मिस लैला के इश्क में घुल रहा था, लेकिन यह हौसला न हुआ कि उससे अपने दर्दे-दिल की दास्तान कहता और जख्मे-जिगर पर मरहम रखवाता। या तो इसे कभी मुनासिब मौक़ा ही न मिलता या ख्यालात दिल से निकलकर होठों तक आते और वहीं से लौट जाते।

इसके अलावा इसकी जबान में वह शोखी और तरारी भी न थी जो बेसाख्ता दिलों को अपनी तरफ़ खींच लेती है। इसकी बरअक्स लार्ड हरबर्ट निहायत रंगीन-मिजाज और रसीला आदमी था। ज़बान में वो रवानी थी कि घंटों बातचीत किया करता। मिजाज में शोखी और जुर्रत का माद्दा भरा हुआ था। वो यात्री भी था और रूहे-ज़मीन के बेश्तर मुकामात के हालात से वाकिफ़ था। यह यात्रा-वृत्ति उसके सिलसिला-ए-तक़रीर की ताजगी और रुवानी में बहुत मदद करती थी। उसने मिस लैला को पेरिस में देखा था। तब से साया की तरह उसके पीछे लगा हुआ था। बारटन को रोज़-बरोज़ अपना पहलू कमजोर होता नज़र आता था। जिस वक्त हरबर्ट कमरे में आता, लैला उसकी तरफ़ आकर्षित हो जाती और उसकी यात्राओं के वाक्ये बड़े गौर से सुनती व उसकी एक-एक बात पर मुस्कराती। इसके आते ही लैला का चेहरा शगुफ्ता हो जाता और वह बुलबुल की तरह चहकने लगती। बारटन इन्हीं वजह से हरबर्ट की हरकत से बेज़ार था। उसने कई बार हरबर्ट से ड्यूलबाज़ी का इरादा किया, लेकिन महज लैला के खौफ से बाज रहा। जिस वक्त लार्ड हरबर्ट मौजूद होता, बारटन के होंठों पर चुप्पी की एक मजबूत मुहर लग जाती थी। वह गहरे ख्याल में डूब जाता और दिल-ही-दिल में कहने लगता- ''क्या यह हुस्नपरस्त लौंडा मेरी सारी ज़िंदगी की आरजुओं को खाक में मिला देगा। मैं यह खूब जानता हूँ कि इसके दिल में लैला की मुहब्बत नहीं है। उसमें अब इश्क की काबलियत ही नहीं। वो सिर्फ़ लैला की दौलत का आशिक है, मगर अफ़सोस है कि लैला उसके दम में रोज़-बरोज़ आती जाती है। क्या वह इतना भी नहीं देख सकती? इसे इतनी भी तमीज नहीं? अगर इसमें इतना अहसास नहीं है तो वह इस काबिल नहीं कि मैं इस पर जान दूँ। मगर अब मैं जल्द फ़ैसला कर लूँगा। अब यह आए-दिन की कोफ्त मुझ से नहीं सही जाती। हरबर्ट की चालों का एक बार मैं उससे जिक्र करूँगा। लैला को शायद यह मालूम नहीं कि यह हज़रत फ़ाक़ामस्त हैं। जो कुछ रियासत और दौलत है, वह लफ्फाजी है। वह इसकी चिकनी-चुपड़ी बातों, शानो-शौक़त और नुमायशी हरक़तों पर आसक्त हो गई है। मैं अब इस तिलिस्म को खोले बगैर नहीं रह सकता।

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