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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802
आईएसबीएन :9781613015391

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


इन्हीं खयालों के असर में मैंने अपनी डायरी लिखी और उसे मेज पर खुला छोड़कर बिस्तर पर लेट रहा और सोचते-सोचते सो गया।

सबेरे उठकर देखता हूँ तो बाबू निरंजनदास मेरे सामने कुर्सी पर बैठे हैं। उनके हाथ में डायरी थी जिसे वह ध्यानपूर्वक पढ़ रहे थे। उन्हें देखते ही मैं बड़े चाव से लिपट गया। अफसोस, अब उस देवोपम स्वभाववाले नौजवान की सूरत देखनी न नसीब होगी। अचानक मौत ने उसे हमेशा के लिए हमसे अलग कर दिया। कुमुदिनी के सगे भाई थे, बहुत स्वस्थ, सुन्दर और हँसमुख, उम्र मुझसे दो ही चार साल ज्यादा थी, उँचे पद पर नियुक्त थे, कुछ दिनों से इसी शहर में तबदील होकर गए थे। मेरी और उनकी दोस्ती हो गई थी। मैंने पूछा- क्या तुमने डायरी पढ़ ली?

निरंजन- हाँ।

मैं- मगर कुमुदिनी से कुछ न कहना।

निरंजन- बहुत अच्छा; न कहूँगा।

मैं इस वक्त किसी सोच में हूँ। मेरा डिप्लोमा देखा?

निरंजन- घर से खत आया है, पिताजी बीमार हैं, दो-तीन दिन में जाने वाला हूँ।

मैं- शौक से जाइए, ईश्वर उन्हें जल्द स्वस्थ करे।

निरंजन- तुम भी चलोगे, न मालूम कैसा पड़े, कैसा न पड़े।

मैं- मुझे तो इस वक्त माफ कर दो।

निरंजनदास यह कहकर चले गये। मैंने हजामत बनायी, कपडे बदले और मिस लीला से मिलने का चाव मन में लेकर चला। वहाँ जाकर देखा तो ताला पडा हुआ था। मालूम हुआ कि मिस लीला साहिबा की तबीयत दो-तीन दिन से खराब थी। आबहवा बदलने के लिए नैनीताल चली गई थी। अफसोस, मैं हाथ मसलकर रह गया। क्या लीला मुझसे नाराज थी? उसने मुझे क्यों खबर न दी। लीला क्या तू बेवफा है, तुझसे बेवफाई की उम्मीद न थी। फौरन पक्का इरादा कर लिया कि आज की डाक से नैनीताल चल दूँ। मगर घर आया तो लीला का खत मिला। काँपते हुए हाथों से खोला, लिखा था- मैं बीमार हूँ, मेरे जीने की कोई उम्मीद नहीं है, डाक्टर कहते हैं कि प्लेग है। जब तक तुम आओगे, शायद मेरा किस्सा तमाम हो जायेगा। आखिरी वक्त तुमसे न मिलने का सख्त सदमा है। मेरी याद दिल में कायम रखना। मुझे सख्त अफसोस है कि तुमसे मिलकर नहीं आयी। मेरा कुसूर माफ करना और अपनी अभागिनी लीला को भुला मत देना।

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