लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802
आईएसबीएन :9781613015391

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

146 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मंगरू कुछ लज्जित होकर बोला- अब तुम यहां से लौट नहीं सकतीं गौरा ! यहां आकर बिरला ही कोई लौटता है।

यह कहकर वह कुछ देर चिन्ता में मग्न खड़ा रहा, मानो संकट में पड़ा हुआ हो कि क्या करना चाहिए। उसकी कठोर मुखाकृति पर दीनता का रंग झलक पड़ा। तब कातर स्वर से बोला- जब आ ही गयी हो तो रहो। जैसी कुछ पड़ेगी, देखी जायेगी।

गौरा- जहाज फिर कब लौटेगा।

मंगरू- तुम यहां से पांच बरस के पहले नहीं जा सकती।

गौरा- क्यों, क्या कुछ जबरदस्ती है?

मंगरू- हां, यहां का यही हुक्म है।

गौरा- तो फिर मैं अलग मजूरी करके अपना पेट पालूंगी।

मंगरू ने सजल-नेत्र होकर कहा- जब तक मैं जीता हूं, तुम मुझसे अलग नहीं रह सकतीं।

गौरा- तुम्हारे ऊपर भार बनकर न रहूंगी।

मंगरू- मैं तुम्हें भार नहीं समझता गौरा, लेकिन यह जगह तुम-जैसी देवियों के रहने लायक नहीं है, नहीं तो अब तक मैंने तुम्हें कब का बुला लिया होता। वही बूढ़ा आदमी जिसने तुम्हें बहकाया, मुझे घर से आते समय पटने में मिल गया और झांसे देकर मुझे यहां भरती कर दिया। तब से यहीं पड़ा हुआ हूं। चलो, मेरे घर में रहो, वहां बातें होंगी। यह दूसरी औरत कौन है?

गौरा- यह मेरी सखी है। इन्हें भी बूढ़ा बहका लाया।

मंगरू- यह तो किसी कोठी में जायेंगी? इन सब आदमियों की बांट होगी। जिसके हिस्से में जितने आदमी आयेंगे, उतने हर एक कोठी में भेजे जायेंगे।

गौरा- यह तो मेरे साथ रहना चाहती हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book