कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
गौरा के प्राण नहों में समा गये। मालूम हुआ जहाज अथाह जल में डूबा जा रहा है। समझ गयी बूढ़े ब्राह्मण ने दगा की। अपने गांव में सुना करती थी कि गरीब लोग मिरिच में भरती होने के लिए जाया करते हैं। मगर जो वहां जाता है, वह फिर नहीं लौटता। हे, भगवान् तुमने मुझे किस पाप का यह दण्ड दिया? बोली- यह सब क्यों लोगों को इस तरह छलकर मिरिच भेजते हैं?
स्त्री- रुपये के लोभ से और किसलिए? सुनती हूं, आदमी पीछे इन सभी को कुछ रुपये मिलते हैं।
गौरा- मजूरी।
गौरा सोचने लगी- अब क्या करूं? यह आशा-नौका जिस पर बैठी हुई वह चली जा रही थी, टूट गयी थी और अब समुद्र की लहरों के सिवा उसकी रक्षा करने वाला कोई न था। जिस आधार पर उसने अपना जीवन-भवन बनाया था, वह जलमग्न हो गया। अब उसके लिए जल के सिवा और कहां आश्रय है? उसको अपनी माता की, अपने घर की अपने गांव की, सहेलियों की याद आती और ऐसी घोर मर्म वेदना होने लगी, मानो कोई सर्प अन्तस्तल में बैठा हुआ, बार-बार डस रहा हो। भगवान! अगर मुझे यही यातना देनी थी तो तुमने जन्म ही क्यों दिया था? तुम्हें दुखिया पर दया नहीं आती? जो पिसे हुए हैं उन्हीं को पीसते हो! करुण स्वर से बोली- तो अब क्या करना होगा बहन?
स्त्री- यह तो वहां पहुंच कर मालूम होगा। अगर मजूरी ही करनी पड़ी तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर किसी ने कुदृष्टि से देखा तो मैंने निश्चय कर लिया है कि या तो उसी के प्राण ले लूंगी या अपने प्राण दे दूंगी।
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