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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802
आईएसबीएन :9781613015391

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


यह कहकर संन्यासी ने उस मृग के रक्तमय मृत शरीर को ऐसी सुगमता से उठाकर कंधे पर धर लिया, मानो वह एक घास का गट्ठा था और राजकुमार से कहा–मैं तो प्रायः कगार से ही नीचे उतर जाया करता हूं, किन्तु तुम्हारा घोड़ा सम्भव है, न उतर सके। अतएव ‘एक दिन की राह छोड़कर छः मास की राह’ चलेंगे। घाट यहाँ से थोड़ी ही दूर है और वहीं मेरी कुटी है।

राजकुमार संन्यासी के पीछे चला। उसे संन्यासी के शारीरिक बल पर अचम्भा हो रहा था। आध घंटे तक दोनों चुपचाप चलते रहे। इसके बाद ढालू भूमि मिलनी शुरू हुई और थोड़ी देर में घाट आ पहुँचा। वहीं कदम्ब-कुंज की घनी छाया में, जहाँ सर्वदा मृगों की सभा सुशोभित रहती, नदी की तरंगों का मधुर स्वर सर्वदा सुनाई दिया करता, जहाँ हरियाली पर मयूर थिरकते, कपोतादि पक्षी मस्त होकर झूमते, लता-द्रुमादि से सुशोभित संन्यासी की एक छोटी-सी कुटी थी।

संन्यासी की कुटी हरे-भरे वृक्षों के नीचे सरलता और संतोष का चित्र बन रही थी। राजकुमार की अवस्था वहाँ पहुँचते ही बदल गई। वहाँ की शीतल वायु का प्रभाव उस समय ऐसा पड़ा, जैसा मुरझाते हुए वृक्ष पर वर्षा का। उसे आज विदित हुआ कि तृप्ति कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों ही पर निर्भर नहीं है और न निद्रा सुनहरे तकियों की ही आवश्यकता रखती है।

शीतल, मंद, सुगंध, वायु चल रही थी। सूर्य भगवान् अस्ताचल को प्रयाण करते हुए इस लोक को तृषित नेत्रों से देखते जाते थे और संन्यासी एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ गा रहा था–
‘ऊधो कर्मन की गति न्यारी।’

राजकुमार के कानों में स्वर की भनक पड़ी, उठ बैठा और सुनने लगा। उसने बड़े-बड़े कलावंतों के गाने सुने थे, किन्तु आज जैसा आनंद उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ था। इस पद ने उसके ऊपर मानो मोहिनी मंत्र का जाल बिछा दिया। वह बिलकुल बेसुध हो गया। संन्यासी की ध्वनि में कोयल की कूक सरीखी मधुरता थी।

सम्मुख नदी का जल गुलाबी चादर की भाँति प्रतीत होता था। कूलद्वय की रेत चंदन की चौकी-सी दीखती थी। राजकुमार को यह दृश्य स्वर्गीय-सा जान पड़ने लगा। उस पर तैरने वाले जल-जंतु ज्योतिर्मय आत्मा के सदृश दीख पड़ते थे, जो गाने का आनन्द उठाकर मत्त-से हो गए थे।

जब गाना समाप्त हो गया, राजकुमार संन्यासी के सामने बैठ गया और भक्तिपूर्वक बोला- महात्मन्, आपका प्रेम और वैराग्य सराहनीय है। मेरे हृदय पर इसका जो प्रभाव पड़ा है, वह चिरस्थायी रहेगा। यद्यपि सम्मुख प्रशंसा करना सर्वथा अनुचित है, किन्तु इतना मैं अवश्य कहूँगा कि आपके प्रेम की गंभीरता सराहनीय है। यदि मैं गृहस्थी के बंधन में न पड़ा होता, तो आपके चरणों से पृथक् होने का ध्यान स्वप्न में भी न करता।

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