लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802
आईएसबीएन :9781613015391

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

146 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


इसी मानस-भक्षी चीते की घात में दोनों शिकारी बैठे हुए थे। नीचे कुछ दूर पर भैंसा बाँधा दिया गया था और शेर के आने की राह देखी जा रही थी। कुँवर साहब शान्त थे; पर वसुधा की छाती धड़क रही थी। जरा-सा भी पत्ता खड़कता, तो वह चौंक पड़ती और बन्दूक सीधी करने के बदले में चौंककर कुँवर साहब से चिपक जाती। कुँवर साहब बीच-बीच में उसकी हिम्मत बंधाते जाते थे।

'ज्यों ही भैंसे पर आया, मैं उसका काम तमाम कर दूँगा। तुम्हारी गोली की नौबत ही न आने पावेगी।'

वसुधा ने सिहरकर कहा- और जो कहीं निशाना चूक गया तो उछलेगा?

'तो फिर दूसरी गोली चलेगी। तीनों बन्दूकें तो भरी तैयार रखी हैं।

तुम्हारा जी घबड़ाता तो नहीं?'

'बिलकुल नहीं। मैं तो चाहती हूँ, पहला मेरा निशाना होता।'

पत्ते खड़खड़ा उठे। वसुधा चौंककर पति के कन्धों से लिपट गयी। कुँवर साहब ने उसकी गर्दन में हाथ डालकर कहा, दिल मजबूत करो प्रिये।

वसुधा ने लज्जित होकर कहा, नहीं-नहीं, मैं डरती नहीं, जरा चौंक पड़ी थी।"

सहसा भैंसे के पास दो चिनगारियाँ-सी चमक उठी। कुँवर साहब ने धीरे से वसुधा का हाथ दबाकर शेर के आने की सूचना दी और सतर्क हो गये। जब शेर भैंसे पर आ गया, तो उन्होंने निशाना मारा। खाली गया। दूसरा फैर किया। चीता जख्मी तो हुआ; पर गिरा नहीं। क्रोध से पागल होकर इतनी जोर से गरजा कि वसुधा का कलेजा दहल उठा। कुँवर साहब तीसरा फैर करने जा रहे थे कि चीते ने मचान पर जम्प मारी। उसके अगले पंजों के धक्के से मचान ऐसा हिला कि कुँवर साहब हाथ में बन्दूक लिये झोंके से नीचे गिर पड़े। कितना भीषण अवसर था! अगर एक पल का भी विलम्ब होता, तो कुँवर साहब की खैरियत न थी। शेर की जलती हुई आँखें वसुधा के सामने चमक रही थीं। उसकी दुर्गन्धमय साँस देह में लग रही थी। हाथ-पाँव फूले हुए थे। आँखें भीतर को सिकुड़ी जा रही थीं; पर इस खतरे ने जैसे उसकी नाड़ियों में बिजली भर दी। उसने अपनी बन्दूक सँभाली। शेर के और उसके बीच में दो हाथ से ज्यादा अन्तर न था। वह उचककर आना ही चाहता था कि वसुधा ने बन्दूक की नली उसकी आँखों में डालकर बन्दूक छोड़ी। धायें! शेर के पंजे ढीले पड़े। नीचे गिर पड़ा। अब समस्या भीषण थी। शेर से तीन-चार कदम पर ही कुँवर साहब गिरे पड़े थे। शायद चोट ज्यादा आयी हो। शेर में अगर अभी दम है, तो वह उन पर जरूर वार करेगा। वसुधा के प्राण आँखों में थे और बल कलाइयों में। इस वक्त कोई उसकी देह में भाला भी चुभा देता, तो उसे खबर न होती! वह अपने होश में न थी। उसकी मूर्च्छा ही चेतना का काम कर रही थी। उसने बिजली की बत्ती जलाई। देखा शेर उठने की चेष्टा कर रहा है। दूसरी गोली सिर पर मारी और उसके साथ ही रिवाल्वर लिये नीचे कूदी। शेर जोर से गुर्राया। वसुधा ने उसके मुँह के सामने रिवाल्वर खाली कर दिया। कुँवर साहब सँभलकर खड़े हो गये। दौड़कर उसे छाती से चिपटा लिया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book