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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


''भला आपको मेरी इतनी चिंता तो है।''

''अपने साथ जो कुछ ले जाना चाहती हो, ले जाओ।''

''मैंने इस घर की चीज़ों को अपनी समझना छोड़ दिया है।''

''मैं नाराज़ होकर नहीं कह रहा हूँ लीला। न जाने कब लौटूँ तुम यहाँ अकेली कैसे रहोगी?''

कई महीनों के बाद लीला ने पति की आँखों में स्नेह की झलक देखी।

''मेरा विवाह तो इस घर की संपत्ति से नहीं हुआ है, तुमसे हुआ है। जहाँ तुम रहोगे, वहीं मैं भी रहूँगी।''

''मेरे साथ तो अब तक तुम्हें रोना ही पड़ा।''

लीला ने देखा, सिंगार की आँखों में आँसू की एक बूँद नीले आकाश में चंद्रमा की तरह गिरने-गिरने हो रही थी। उसका मन भी पुलकित हो उठा। महीनों की सुधाग्नि में जलने के बाद अन्न का एक दाना पाकर वह उसे कैसे ठुकरा दे। पेट नहीं भरेगा, कुछ भी नहीं होगा; लेकिन उस दाने को ठुकराना क्या उसके बस की वात थी? उसने बिलकुल पास आकर अपने अंचल को उसके समीप ले जाकर कहा- ''मैं तो तुम्हारी हो गई। हँसाओगे हँसूँगी, रुलाओगे रोऊँगी, रखोगे तो रहूँगी, निकालोगे तो भी रहूँगी, मेरा घर तुम हो, धर्म तुम हो, अच्छी हूँ तो तुम्हारी हूँ बुरी हूँ तो तुम्हारी हूँ।'' और दूसरे क्षण सिंगार के विशाल सीने पर उसका सिर रखा हुआ था और उसके हाथ थे लीला की कमर में। दोनों के मुख पर हर्ष की लाली थी, आँखों में हर्ष के आँसू और मन में एक ऐसा तूफ़ान, जो उन्हें न जाने कहाँ उड़ा ले जाएगा। एक क्षण के वाद सिंगार ने कहा- ''तुमने कुछ सुना, माधुरी भाग गई और पगला दयाकृष्ण उसकी खोज में निकला है!''

लीला को विश्वास न आया- ''दयाकृष्ण!''

''हाँ जी, जिस दिन वह भागी है, उसके टूसरे ही दिन वह भी चल दिया।'' 

''वह तो ऐसा आदमी नहीं है। और माधुरी क्यों भागी?''

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