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कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
दयाकृष्ण ने पुचारा दिया- ''जब स्त्री अपना रूप बेचती है, तो उसके खरीदार भी निकल आते हैं। फिर यहाँ तो कितनी ही जातियाँ हैं, जिनका यही पेशा है।''
''यह पेशा चला कैसे?''
''पुरुषों की दुर्बलता से।''
''नहीं, मैं समझता हूँ बिस्मिल्लाह पुरुषों ने की होगी।''
इसके बाद एकाएक जेब से घड़ी निकालकर देखता हुआ वोला- ''ओहो! दो बज गए और अभी मैं यहीं बैठा हूँ। आकर शाम को मेरे यहाँ खाना खाना। जरा इस विषय पर बातें होंगी। अभी तो उसे ढूँढ निकालना है। वह है कहीं इसी शहर में। घरवालों से भी कुछ नहीं कहा। बुढ़िया नायका सिर पीट रही थी। उस्ताद जी भी अपनी तकदीर को रो रहे शे। न जाने कहा, जाकर छिप रही।''
उसने उठकर दयाकृष्ण से हाथ मिलाया और चला।
दयाकृष्ण ने पूछा- ''मेरी तरफ़ से तो तुम्हारा दिल साफ़ हो गया?''
सिंगार ने पीछे फिरकर कहा- ''हुआ भी और नहीं भी हुआ।'' और बाहर निकल गया।
सात-आठ दिन तक सिंगारसिंह ने सारा शहर छाना, पुलिस में रिपोर्ट की, समाचार-पत्रों में नोटिस छपाई, अपने आदमी दौड़ाए; लेकिन माधुरी का कुछ भी सुराग न मिला। फिर महफ़िल कैसे गर्म होती! मित्रवृंद सुबह-शाम हाजिरी देने आते और अपना-सा मुँह लेकर लौट जाते। सिंगार के पास उनके साथ गपशप करने का समय न था। गरमी के दिन, सजा हुआ कमरा भट्ठी बना हुआ था। खस की टट्टियाँ भी थीं, पंखा भी; लेकिन गरमी जैसे किसी के समझाने-बुझाने की परवाह नहीं करना चाहती, अपने दिल का बुखार निकाल कर ही रहेगी।
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