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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


''मुझे याद नहीं।''

''खास-खास आदमियों के नाम बता सकते हैं?''

''होमरूल के दफ्तर से मेम्बरों की फ़ेहरिस्त आपको मिल सकती है।''

लाला जानकीनाथ शहर के बड़े आदमियों में थे। आज कई साल से उन्होंने वकालत छोड़ दी थी, परंतु धन खूब संग्रह कर लिया था। कई गाँवों के जमींदार भी थे और सबसे बड़ी बात यह थी कि अफ़सरों के कृपा-पात्र थे। उनकी जितनी जान-मान थी, उतनी उनसे बड़े आदमियों की भी नहीं थी और यह तो खुला हुआ भेद था कि सरकारी वकालत के संबंध में दयानाथ की योग्यता से अधिक जानकीनाथ की विनयशीलता का श्रेय था। ये अपने युवाकाल में स्वयं राजनीतिक कामों में भाग लेते रहे थे, लेकिन पं. अयोध्यानाथ की मृत्यु के बाद से उन्होंने इन कामों से मुँह मोड़ लिया था। अब उनका अधिकांश समय स्वार्थ-साधन में व्यतीत होता था। दयानाथ उनके इकलौते बेटे थे। उन्हीं की शुभाकांक्षाओं में मग्न रहते थे। अधिकारी वर्ग को विदाई और बधाई के जलसों में वे खूब योग देते थे। ऐसे अवसरों पर उनकी वस्तृताएँ बड़े मार्के की होती थीं, भाव और भाषा दोनों ही सुंदर।

यद्यपि उनकी अवस्था पचास से कम न थी, तथापि उनका स्वास्थ्य बहुत ही अच्छा था। वे दयानाथ को उनके मिताहारी होने पर कभी-कभी लज्जित भी किया करते थे। बल-विक्रम की उनमें न्यूनता नहीं थी। वे रोजाना चार-पाँच मील सैर करने जाया करते थे, परलोक बनाने की भी फ़िक्र में रहते थे, कितु ऐसे काम से सहानुभूति रखना भी उनके लिए असंभव था, जिससे अधिकारियों की अप्रसन्नता का भय हो। कोतवाल के चले जाने के बाद दयानाथ से बोले- ''तुम्हें क्या सूझी है? तुम अपने को मुझसे अधिक बुद्धिमान समझते होगे, लेकिन मैं तुमसे स्पष्ट कहता हूँ कि धोखा खाओगे। समय पड़ने पर कोई काम न आएगा। मैंने ऐसे कितने ही आदमी देखे हैं, जिन्होंने देश के पीछे अपना सर्वस्व त्याग दिया, लेकिन जब मुक़दमे में फँसे तो उनकी ओर से पैरवी करने वाला भी न मिला। मैंने तुम्हें पहले भी समझाया है और फिर समझाता हूँ कि इन कार्यों में हाथ न डालो, मैं मर जाऊँगा तो जो जी चाहे करना। मैं मना करने नहीं आऊँगा, लेकिन जब तक जीता हूँ मेरे ऊपर इतनी दया करो।''

दयानाथ ने नम्रता से कहा- ''मुझे लोग जबर्दस्ती खींच ले गए और वहां सेक्रेटरी बना दिया। उस वक्त क्या करता? इंकार करना सबकी दृष्टि में कापुरुपता का परिचय देना था। मेरी समझ में तो भय की बात भी कोई नहीं। देश-भर इस मामले में एक जबान है।''

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