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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


कई दिन के बाद दोनों उस रियासत की सीमाओं से बाहर निकल जाते हैं और सांगली की रियासत में जा पहुँचते हैं। दोनों यहीं एक गाँव में रहने लगते हैं। दोनों गाँव की सेवा करते हैं और उनकी सेवा से गाँव वाले बहुत प्रसन्न हैं।

गाँव में एक ठाकुरद्वारा है, वहीं दोनों रात में कीर्तन करते हैं। उनकी सेवा और भक्ति की प्रसिद्धि आसपास के गाँवों में फैल जाती है और भक्तों की संख्या बढ़ने लगती है। उन किसानों की दृष्टि में ये दोनों दैवी शक्तियाँ हैं और वे उनकी प्राणपन से अर्चना करते हैं। गीत तथा कविता के इस संसार में दोनों ईश्वरीय अस्तित्व के दर्शन करते हैं और सांसारिक मलिनता और इच्छाएँ उनके मन से निकल जाती हैं। उन्हें हरेक वस्तु में एक ही वास्तविकता के दर्शन होने लगते हैं। कभी-कभी हरिहर झरने के किनारे जा निकलता है और उसके संगीत में ईश्वरीय ध्वनि सुनता है और उसका हृदय आध्यात्मिक भावों से परिपूर्ण हो जाता है। कभी किसी जंगली फूल को देखकर वह मस्ती में आ जाता है और उसमें ईश्वर के दर्शन करता है।

एक दिन सांगली के कुँअर साहब शिकार खेलने आते हैं। उनके साथ बंदूकची, शिकारी आदि भी डेरे लिए आ पहुँचते हैं। संध्याकाल है, कुँअर साहब अपने हाथी पर गाँव में आते हैं और शिकार की तैयारियाँ होने लगती हैं। उसी समय इंदिरा उनके सामने पहुँचकर एक आध्यात्मिक पद गाती है। कुँअर साहब के हृदय में लड़की का प्यार हरा हो जाता है। जब उन्होंने पहली बार इंदिरा को देखा था तो उसे पहचान गए थे लेकिन उस दशा में उसे अपनी लड़की स्वीकार करने का उन्हें साहस न हुआ था। तब से उन्हें निरन्तर अपनी बेटी की स्मृति बेचैन करती रहती थी लेकिन इस मध्य उनका प्यार इन विचारों पर हावी हो चुका है। अब वे सहन नहीं कर पाते और इंदिरा को सीने से लगाकर कहते हैं, ‘तू मेरी खोई हुई प्यारी बेटी है।’ वे उससे अपने साथ चलने का आग्रह करते हैं लेकिन हरिहर वैभव और समृद्धि के जाल में फँसना नहीं चाहता। उसे आशंका होती है कि कहीं वैभव में पड़कर इंदिरा को ही न खो बैठे। वह इंदिरा से कुछ नहीं कहता लेकिन उसके हाव-भाव से उसकी मनोदशा प्रकट हो जाती है और इंदिरा अपने पिता के साथ जाने से मना कर देती है। मन्दिर के सामने झोंपड़ी में दोनों बैठे हुए हैं। घर में कोई सामान नहीं। उधर शाही महल में वैभव है, प्रतिष्ठा तथा नौकर-चाकर हैं, लेकिन इंदिरा यह सब अपने प्यार पर न्योछावर कर देती है।

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