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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


फिर आसमान में शोर हुआ इतना मगर शायद यह इधर की के हवाई जहाज़ हैं। जयगढ़ वाले बड़े दमख़म से लड़ रहे हैं। इधर वाले दबते नजर आते हैं। आज यकीनन मैदान उन्हीं के हाथ में रहेगा। जान पर खेले हुए हैं। जयगढ़ी वीरों की बहादुरी मायूसी ही में खूब खुलती है। उनकी हार जीत से भी ज्यादा शानदार होती है। बेशक, असकरी दाँव-पेंच का उस्ताद है, किस खूबसूरती से अपनी फ़ौज का रुख क़िले के दरवाजे की तरफ़ फेर दिया। मगर सख्त गलती कर रहे हैं। अपने हाथों अपनी क़ब्र खोद रहे हैं। सामने का मैदान दुश्मन के लिए खाली किये देते हैं। वह चाहे तो बिना रोक-टोक आगे बढ़ सकता है और सुबह तक जयगढ़ की सरज़मीन में दाखिल हो सकता है। जयगढियों के लिए वापसी या तो ग़ैरमुमकिन है या निहायत ख़तरनाक। क़िले का दरवाज़ा बहुत मजबूत है। दीवारों की संधियों से उन पर बेशुमार बन्दूकों के निशाने पड़ेंगे। उनका इस आग में एक घण्टा भी ठहरना मुमकिन नहीं है। क्या इतने देशवासियों की जानें सिर्फ एक उसूल पर, सिर्फ हिसाब के दिन के ड़र पर, सिर्फ़ अपने इख़लाक़ी एहसास पर कुर्बान कर दूँ? और महज जानें ही क्यों? इस फ़ौज की तबाही जयगढ़ की तबाही है। कल जयगढ़ की पाक सरज़मीन दुश्मन की जीत के नक्क़ारों से गूंज उठेगी। मेरी माएं, बहनें और बेटियां हया को जलाकर खाक कर देने वाली हरकतों का शिकार होंगी। सारे मुल्क में क़त्ल और तबाही के हंगामे बरपा होंगे। पुरानी अदावत और झगड़ों के शोले भड़केंगे। कब्रिस्तान में सोयी हुई रूहें दुश्मन के क़दमों से पामाल होंगी। वह इमारतें जो हमारे पिछले बड़प्पन की जिन्द निशानियाँ हैं, वह यादगारें जो हमारे बुजुर्गों की देन हैं, जो हमारे कारनामों के इतिहास, हमारे कमालों का ख़जाना और हमारी मेहनतों की रोशन गवाहियां हैं, जिनकी सजावट और खूबी को दुनिया की क़ौमें स्पर्द्धा की आंखों से देखती हैं वह अर्द्ध-बर्बर, असभ्य लश्करियों का पड़ाव बनेंगी और उनके तबाही के जोश का शिकार। क्या अपनी क़ौम को उन तबाहियों का निशाना बनने दूं? महज इसलिए कि वफ़ा का मेरा उसूल न टूटे?

‘उफ्, यह क़िले में ज़हरीले गैस कहां से आ गये। किसी जयगढ़ी जहाज की हरकत होगी। सर में चक्कर-सा आ रहा है। यहां से कुमक भेजी जा रही है। किले की दीवार के सूराखों में भी तोपें चढाई जा रही है। जयगढ़वाले क़िले के सामने आ गये। एक धावे में वह हुंमायूं दरवाजे तक आ पहुँचेंगे। विजयगढ़ वाले इस बाढ़ को अब नहीं रोक सकते। जयगढ़ वालों के सामने कौन ठहर सकता है? या अल्लाह, किसी तरह दरवाजा खुद-ब-खुद खुल जाता, कोई जयगढ़ी हवाबाज़ मुझसे जबर्दस्ती कुंजी छीन लेता। मुझे मार ड़ालता। आह, मेरे इतने अज़ीज हम-वतन प्यारे भाई आन की आन में ख़ाक में मिल जायेंगे और मैं बेबस हूँ! हाथों में जंजीर है, पैरों में बेड़ियां। एक-एक रोआं रस्सियों से जक़ड़ा हुआ है। क्यों न इस जंजीर को तोड़ दूँ, इन बेड़ियों के टुकड़े-टुकड़े कर दूं, और दरवाज़े के दोनों बाजू अपने अज़ीज़ फ़तेह करने वालों की अगवानी के लिए खोल दूं! माना कि यह गुनाह है पर यह मौक़ा गुनाह से ड़रने का नहीं। जहन्नुम की आग उगलने वाले सांप और खून पीने वाले जानवर और लपकते हुए शोले मेरी रूह को जलायें, तड़पायें कोई बात नहीं। अगर महज़ मेरी रूह की तबाही, मेरी क़ौम और वतन को मौत के गड्ढे से बचा सके तो वह मुबारक है। विजयगढ़ ने ज्यादती की है, उसने महज जयगढ़ को जलील करने के लिए सिर्फ उसको भड़काने के लिए शीरीं बाई को शहर-निकाले को हुक्म़ जारी किया जो सरासर बेजा था। हाय, अफ़सोस, मैंने उसी वक्त इस्तीफ़ा न दे दिया और गुलामी की इस क़ैद से क्यों न निकल गया।

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