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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग

2. रोशनी

आईसीएस. का इम्तिहान पास करके हिंदोस्तान आया तो मुझे संयुक्त प्रांत के एक पहाड़ी इलाक़े में एक सबडिवीजन का चार्ज मिला। मुझे शिकार का बहुत शौक था और पहाड़ी इलाके में शिकार की क्या कमी! मेरी दिली पूर्ण होने आई। एक पहाड़ के दामन में मेरा बंगला था। बँगले पर ही कचहरी कर लिया करता था। अगर कोई शिकायत थी तो यह कि सोसायटी न थी; इसलिए सैर व शिकार और अखबारात व पत्रिकाओं से इस कमी को पूरा किया करता था। अमरीका और योरप के कई अखबार-पत्रिकाएं आते थे। उनके समाचारों की प्रफुल्लता, विकास और नवीनता और भाव-सज्जा, काल्पनिकता के मुक़ाबिले में हिंदोस्तानी अखबार और रिसाले भला क्या जँचते? सोचता था, वह दिन कब आएगा कि कि हमारे यहाँ भी ऐसे ही शानदार रिसाले निकलेंगे।

बहार का मौसम था, फागुन का महीना। मैं दौरे पर निकला और लँघौर के थाने का मुआइना करके गजनपुर के थाने को चला। कोई अठारह मील की दूरी थी, मगर मंजर दृश्य निहायत सुहाना। धूप में किसी क़दर तेजी थी, मगर असह्य नहीं। हवा में भीनी-भीनी खुशबू थी। आम के दरख्तों में बौर आ गए थे और कोयल कूकने लगी थी। कंधे पर बंदूक़ रख ली थी कि कोई शिकार मिल जाए, तो लेता चलूँ। कुछ अपनी हिफ़ाजत का भी ख्याल था, क्योंकि उन दिनों जगह-जगह डाके पड़ रहे थे। मैंने घोड़े की गर्दन सहलाई और कहा,  ''चलो बेटा, चलो। ढाई घंटे की दौड़ है। शाम होते-होते गजनपुर पहुँच जाएँगे।'' और साथ के मुलाजिम पहले ही रवाना कर दिए गए थे।

काश्तकार खेतों में काम करते नज़र आते थे। रबी की फ़सल तैयार हो चली थी। ईख और खरबूजे के लिए जमीन तैयार की जा रही थी। ज़रा-ज़रा से खेत थे। वही बाबा आदम के ज़माने के बेदम हल, वही अफ़सोसनाक हालत, वही शर्मनाक वस्त्रहीनता! इस क़ौम का खुदा ही हाफ़िज है।

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