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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


दारोग़ा- ''तो मेरे लिए क्या आर्डर होता है?''

हरिविलास- ''जाकर अपने साफे को जला डालिए और वर्दी को फाड़कर फेंक दीजिए और इस गुलामी की जंजीर को जो आपकी कमर में है और जिसे आप हुकूमत का निशान समझते हैं, तोड़कर आज़ाद हो जाइए। सरकारी हुक्मों की बहुत तामील कर चुके, डाके और चोरी की खूब तफतीश की और हराम का माल खूब जमा किया। अब जाकर कुछ दिनों घर बैठिए और अपने पापों का प्रायश्चित्त कीजिए। रियाया की जान-व-माल की हिफ़ाज़त करने का स्वाँग भरकर उनको अज़ाब में न डालिए। यह किसानों की पंचायत है, लुटेरों का जत्था नहीं है, सब एक जगह बैठकर नशेबाजी बंद करने की तदबीरें सोचेंगे। आपको मेरे साथ चलने की मुतलक जरूरत नहीं है।''

बाबू हरिविलास का मुखमंडल विमल क्रोध से उत्तेजित हो रहा था और आँखों से ज्योति निकल रही थी। दारोग़ा जी पर रोब छा गया और यह सोचते हुए कि या तो इन्होंने आज शराब पी है या इन पर कोई सख्त सदमा आ पड़ा है, थाने चले गए। यह शब्द बाबू हरिविलास के अंतःकरण से निकले थे। यह उनके अंतिम निश्चय की घोषणा थी। दारोगा जी ने इधर पीठ फेरी उधर उन्होंने अपना इस्तीफ़ा लिखना शुरू किया।

''महाशय! मेरा विश्वास है कि शासन संस्था ईश्वरीय इच्छा का वाह्य स्वरूप है और उसके नियम भी ईश्वरीय नियमों की भाँति दया, सत्य और न्याय पर अवलम्बित हैं। मैंने इसी विश्वास के अधीन बीस वर्ष तक सरकार की सेवा की। जब कभी मेरे आत्मिक आदेश और सरकारी हुक्म में विरोध हुआ, मैंने यथा-साध्य आत्मा का आदेश पालन किया। मैंने अपने को कभी प्रजा का स्वामी नहीं समझा, सदैव सेवक समझता रहा। इसलिए सरकारी पत्र नं....... तारीख....... में जो आज्ञा दी गई है वह मेरी आत्मा और धर्म के इतनी विरुद्ध है और उसमें न्याय की ऐसी हत्या की गई है कि मैं उसका पालन करना घोर पाप समझता हूँ। मेरे विचार में वर्तमान शासन सत्पथ से संपूर्णत: विचलित हो गया है। यह आज्ञा प्रजा के जन्मसिद्ध स्वत्वों को छीनना और उनके राष्ट्रीय-भावों का वध करना चाहती है। यह इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि शासक वृन्द प्रजा को अनंत काल तक मूर्खता और अज्ञान में व्यस्त रखना चाहते हैं और उसकी जागृति से सशंक हैं। वह अपने उत्थान और सुधार के लिए जो प्रयत्न करना चाहती है उसे भी ताड़नीय समझते हैं, ऐसे दुष्कार्य में योग देना अपनी आत्मा, विवेक और जातीयता का खून करना है। अतएव अब मुझे इस राज-संस्था से असहयोग करने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। मैं अपना पदत्याग करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि मुझे बिना विलंब इस बंधन से मुक्त किया जाए।''

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