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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


धनियों को चोरों के भय से निद्रा नहीं आती। मानियों को उसी भाँति मान की रक्षा करनी पड़ती है। वह जंतु जो पहले कीट के समान अल्पाकार रहा होगा, दिनों के साथ दीर्घ और सबल होता जाता है, यहाँ तक कि हम उसकी याद ही से काँप उठते हैं और अपने ही कारनामों की बात होती तो अधिकांश देवियाँ जुगनू को दुत्कारतीं, पर यहाँ तो मैके और ससुराल, नन्हियाल और ददियाल, फुफियाल और मौसियाल, चारों ओर की रक्षा करनी थी और जिस किले में इतने द्वार हों, उसकी रक्षा कौन कर सकता है। वहाँ तो हमला करनेवाले के सामने मस्तक झुकाने में ही कुशल है। जुगनू के दिल में हज़ारों मुर्दे गड़े पड़े थे और वह जरूरत पड़ने पर उन्हें उखाड़ दिया करती थी। जहाँ किसी महिला ने दून की ली या शान दिखाई, वहीं जुगनू की त्योरियाँ बदलीं। उसकी एक कड़ी निगाह अच्छे-अच्छों को दहला देती थी। मगर यह बात न थी कि स्त्रियाँ उससे घृणा करती हों। नहीं, सभी बड़े चाव से उससे मिलतीं और उसका आदर-सत्कार करतीं। अपने पड़ोसियों की निंदा सनातन से मनुष्य के लिए मनोरंजन का विषय रही है और जुगनू के पास इसका काफ़ी सामान था।

नगर में इंदुमती-महिला-पाठशाला नाम का एक लड़कियों का हाईस्कूल था। हाल में मिस खुरशेद उसकी हेडमिस्ट्रेस होकर आई थीं। शहर में महिलाओं का दूसरा क्लब न था। मिस खुरशेद एक दिन आश्रम में आईं। ऐसी ऊँचे दर्जे की शिक्षा पाई हुई आश्रम में कोई देवी न थी। उनकी बड़ी आवभगत हुई। पहले ही दिन मालूम हो गया कि मिस खुरशेद के आने से आश्रम में एक नए जीवन का संचार होगा। कुछ इस तरह दिल खोलकर हरेक से मिलीं, कुछ ऐसी दिलचस्प बातें कीं कि सभी देवियाँ मुग्ध हो गईं। गाने में भी चतुर थीं। व्याख्यान भी खूब देती थीं और अभिनय-कला में तो उन्होंने लंदन में नाम कमा लिया था। ऐसी सर्वगुण सम्पन्न देवी का आना आश्रम का सौभाग्य था। गुलाबी गोरा रंग, कोमल गात, मदभरी आँखें, नए फ़ैशन के कटे हुए केश, एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ, मादकता की इससे अच्छी प्रतिमा न बन सकती थी।

चलते समय मिस खुरशेद ने मिसेज़ टंडन को जो आश्रम की प्रधान थी, एकांत में बुलाकर पूछा- ''वह बुढ़िया कौन है?''

जुगनू कई बार कमरे में आकर मिस खुरशेद को अन्वेषण की आँखों से देख चुकी थी, मानो कोई शहसवार किसी नई घोड़ी को देख रहा हो।

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